Saturday, June 11, 2022

एक पल की विवेचना

 सबसे अच्छा था 

तुम्हारा चुपचाप चला जाना 

मुझे विदा करने न आना। 

तुम्हारे लिए पता नहीं किन्तु मेरे लिए

हाँ, यही अच्छा था। 


उस रोज हुई एक लापरवाही ने 

कुछ पल का सुख तो दिया था 

साथ में जीवन पर्यन्त का पीड़ा भी मिला था। 

मेरे आँखों में तुम्हारी अंतिम स्मृतिचित्र 

तुम्हारा मुस्कुराने का ढोंग करते हुए मायूस चेहरा न होकर 

दूर जाती पीठ होती तो 

जीवन ज्यादा सुखदायी होता। 

यूँ रह रह कर तुम्हारी याद गर आती भी तो 

निराशा मन को घेरती 

और मशक्कत नहीं करनी पड़ती 

हर पंद्रह-बीस दिन में तुम्हे भूलने की।  


वो तो अच्छा हुआ कि तुमने 

केवल अलविदा कहा था 

रोकर गले नहीं लगाया था। 

न जाने कितनी रातें और जागना पड़ता 

उस अनुभव की याद में। 


-

प्रशांत 

Sunday, May 15, 2022

भगजोगनी

इकतारा प्रकाशन: चित्र हिमांशु उजिनवाल 



"भगजोगनी " 

हाँ, भगजोगनी ही कहा था माँ ने 

जब मैंने पहली बार इंसान के इतर 

किसी का परिचय पूछा था। 

कुत्ता,बिल्ली, टिकूली,बेन्ग, सांप से 

भेंट-मुलाकात हो चुकी थी उस उम्र में। 

शाम को जब माँ के साथ लालटेन का शीशा साफ करता था तो 

बहुत सारे टिमटिमाते जुगनू आस-पास मंडराते थे 

मानों कह रहे हो कि 

लालटेन क्यों जलाओगे ?

हम हैं न। 


रात होने पर खटिया पर लेटे-लेटे आसमान के तारे 

गिना करता था तो अक्सर 

ये पीली बत्ती भूक-भाक करते आ जाते थे 

मेरी आँखों और तारों के बीच। 

मानों कह रहे हो कि 

तारों की गिनती तो खैर तुम कर भी लोगे। 

हमारी तादाद थोड़े ही पता कर पाओगे ?


भगजोगनी नाम माँ ने शायद इसलिए ही दिया था। 

एक जोगिनी की तरह हर बार विस्मय में 

डाल जो देती थी ये सब। 

आगे चलकर विज्ञान की किताबों में 

जुगनुओं के बारे में और पढ़ा पर सोचता हूँ 

विज्ञान के बल्ब और बच्चों के बीच -

क्या अब भी भगजोगनी आती होगी ?

जैसे उस वक़्त मेरे और तारों के बीच आया करती थी। 


एक बात बताऊँ परसो रात 

मैं सड़क किनारे एक खेत में खड़ा था 

जैसे ही बिजली कटी, दूर जल रहा एक बल्ब बुता। 

वो फिर आ गई 

एक से दो होकर अनेक हो गई। 

मानों पूछ रही हो कि 

क्यों मैंने उनसे बतियाना छोड़ दिया ?

क्या मैं गणित के सारे हथकंडे 

अपनाकर तारों को गिन पाया हूँ ?

घुप अँधेरे में भी मुझे 

उनकी पीली रौशनी थोड़ी उदास लगी। 

महसूस हुआ जो वो नहीं कहना चाह रही थी। 

अब उनकी संख्या कम हो गई है 

इसलिए वो दम्भ उनकी रौशनी में नहीं रहा। 

मैं झूठा विश्वास नहीं दिला पाया 

जैसा मैं इंसानों को दिलाता हूँ 

फिर भी कहा कि 

मेरा बस चलेगा तो मैं दुनिया के सारे बल्ब फोड़ दूंगा 

और खेतों में चारपाई लगाकर 

बैठ बतियाऊंगा एक-एक भगजोगनी से।


- प्रशान्त 


 

गूगल से साभार 





Sunday, May 08, 2022

माँ के लिए समय का अर्थ

 


मुश्किल लगता है इतनी लम्बी जिंदगी में,

किसी के लिए वक़्त के दो क्षण निकालना। 

फिर भी मेरी माँ ने 

जो भी जीवन जिया 

जितना भी समय दिया 

बस मेरे लिए दिया। 


लोग अक्सर कहते हैं जन्म से पहले भी 

9 महीने मेरे लिए समर्पित किया था उन्होंने 

पर 3-4 वर्षों के बाद जब शायद पहली बार मैं 

पूरी तरह होश में रहा होऊंगा 

तब तक और शायद अबतक 

मैं यह नहीं जान पाया कि इस दुनिया में जब लोग 

एक-एक मिनट के बदले कुछ चाहते हैं। 

माँ ने बिना कुछ चाहे 

कैसे अपना सारा वक़्त मुझे दे दिया ?

परिवार,समाज,ममता 

क्या रहा होगा कारण ?

जब उन्होंने मेरे लिए अपना 

समय समर्पित करने का निर्णय लिया होगा ?

असंख्य कारणों में,

हजारों शब्दों में 

कौन सा वह रूप लेकर मैंने उनसे उनका 

समय मांगने की हिम्मत की होगी ?


या बिना मांगे ही मुझे मिला 

वह सब जो शायद नहीं मिलता 

अगर माँ कुछ और सोच लेती 

मात्र एक पल को। 

एक निर्णय कि

 "मैं अपना सारा समय तुम्हे देती हूँ।"

एक क्षण में लेना। 

जबतक मैं मना नहीं करता  हूँ। 


"वह अपना समय मुझे कैसे दे सकती है ?"

 मैं नहीं पूछता यह सवाल। 

पर समय की कीमत को 

सफलता से जितनी बार मैंने जोड़ा 

शायद मैं असफल हुआ हर बार। 

माँ सफल हुई या नहीं हुई 

यह तय माँ के अलावा कौन कर सकता है ?

मुझे उत्तर कब और कहाँ मिलेगा 

यह समझना मेरी शक्ति से बाहर लगता है। 

?????  


सफाई विद्यालय : ग्राम्य मंथन के एक सत्र में लिखा गया 

कई बार ऐसा लगता है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी तुमसे कभी बात नहीं हो पाई, तुम हो भी तो वैसी ही जिद्दी।  सुबह जब सूर्य भी नहीं सोचता है कि अब जागने का समय हुआ है तब से तुम जग जाती हो और भंसाघर में सफाई शुरू कर देती हो और रात जब चाँद सोने को जाने लगता है तब करीब एक-डेढ़ बजे तुम सोने जाती हो। इस बीच में तुम सबका ख्याल रखने में इतना व्यस्त होती हो कि मैं कुछ बात करना चाहूँ भी तो कैसे करूँ यह सोचकर अगले दिन का इंतज़ार करता हूँ। मुझे कभी कभी लगता है कि सबसे तुम्हारे बारे में बातें करूँ और सबसे सुनूं। माँ प्रणाम। 

Sunday, January 23, 2022

प्याज से समझो


प्याज खाया है क्या तुमने ?

अगर नहीं खाया है ,

तो देखा तो जरूर होगा। 

कितनी परतें होती है उसमे ?

 एक परत के खुलते ही

 शायद लगे कि अंदर 

और परतें नहीं होंगी। 

होगी आलू जैसी या चीकू जैसी 

जिसमे मात्र एक बाहरी आवरण होती है 

अंदर कुछ नहीं होता है छुपाने को। 

इसी ग़लतफ़हमी में रहते है अक्सर हम भी 

कि एक बार में ही

 हमने सामने वाले को जान लिया है। 

कितना कुछ खोते हैं हम 

अपनी इस गलतफहमी  के वजह से ,

कितना कुछ टूट जाता है सामने वाले में 

जब उसे गलत समझ लिया जाता है। 


इंसान प्याज जैसा होता है 

परत दर परत खुलता है। 

ये परतें इंसान के ऊपर 

समय और समाज लगाता है। 

जैसे समय और परिवेश 

एक कलि को प्याज बना देती है। 

तुममें अगर बालपन बचा होगा 

होगी और जानने की इच्छा,

तुम जरूर एक के बाद एक परतें खोलोगी। 

पर पाओगी क्या ?

प्याज तो पहली परत में जो था 

वही अंतिम परत में भी है। 

कुछ भी बदला नहीं है 

और न ही बदल सकता है। 

वो तो तुम हो जिसने उसके बारे में 

और जानने की कोशिश की। 

तुम समर्पित हुई और समय दिया 

इसलिए अब तुम पूरी तसल्ली के साथ 

फैसले ले सकती हो। 


अगर नहीं देखा है 

प्याज तुमने 

तो मेरी मानो 

छोड़ो इन व्यर्थ की बातों को 

आ जाओ मेरे साथ 

हम मिलकर उगाएंगे प्याज 

उसे छीलेंगे परत दर परत 

थोड़ा प्याज को जानेंगे और 

थोड़ा एक दूसरे को समझेंगे। 


-प्रशांत 




 


Wednesday, January 19, 2022

तुम्हारी याद

 

अब मैं तुम्हे याद नहीं करना चाहता

फिर क्यूँ जैसे ही दो पल का चैन मिलता है,

तुम चली आती हो मन के अँधेरे के कोने से ?

 जैसे कोई तितली आती है 

उड़ती हुई सरसों के पीले फूलों पर ,

जैसे कोई गिलहरी फुदकती हुई 

चढ़ जाती है पीले कनेर के पौधे पर। 

 मैं न तो तितली को मना कर सकता हूँ 

और न ही गिलहरी को रोक सकता हूँ। 

किन्तु क्या मेरे मन पर भी 

मेरा वश नहीं चलेगा ?


यूँ तो मैं थोड़ा आलसी हूँ ,

कोई काम करना नहीं चाहता। 

पहले माँ के कई बार समझाने पर 

घर के काम किया करता था। 

आजकल मेरे पास बहुत से काम है,

हर दिन सुबह से शाम तक 

सौ तरह के मसले होते हैं

जिन्हे हल करते-करते रात हो जाती है। 

घर की जिम्मेदारी तो है ही,

दुनियादारी भी देखनी पड़ती है। 

गांव-समाज की अपनी कहानियां है। 

इतना और बहुत कुछ करने के बावजूद 

जब भी खाली समय मिलता था,  

मन मेरा सपने देखा करता था। 

आजकल वो भी तुम्हारी यादों ने छीन लिया है,

इसलिए मैं अब तुम्हे याद नहीं करना चाहता हूँ। 


- प्रशांत 




Sunday, January 16, 2022

इसमें तुम्हारा क्या दोष ?


अगर इस बात को नजरअंदाज कर दूँ कि 

हम जैसे भी हैं अच्छे-बुरे , सच्चे-झूठे 

पल-पल बदलती परिस्थितियों के हिसाब से 

बदलती रहती है हमारी मानसिकता 

और बदलता रहता है हमारा सामने वाले के साथ व्यवहार। 

तो भी मैं स्वयं को दोषी मानकर 

तुमसे क्षमा मांग सकता हूँ किन्तु 

समाज का ताना-बाना ही ऐसा है 

इसमें तुम्हारा क्या दोष ?

तुम्हे अगर याद हो तो गौर करना कि 

मैंने केवल प्यारी बातें नहीं की थी तुमसे। 

मैंने बातें जब भी किया तुमसे, 

स्वाभाविक रूप से किया बिना किसी अतिशयोक्ति के। 

अलग बात है कि परिस्थितियों के वजह से 

मैंने टीका - टिप्पनी ज्यादा की 

कुछ ज्यादा ही मजाक किया 

और बहुत कम किया प्यारी बातें। 

जिससे तुम हो पाती प्रभावित 

जैसे कोई मोर जाहिर करता है अपना प्रेम पंख फैलाकर 

सुंदरता बिखेर देता है फ़िज़ा में। 

पर मुझे दिखावा नहीं करना था 

जैसे एक अमरुद समय के साथ मिठास लाता है खुद में 

मैं भी शुरुआत में कड़वा लगा हूँगा तुम्हे 

इसका मतलब यह तो नहीं कि 

तुम्हे भी इंतज़ार नहीं करना चाहिए था। 

खैर वो तो तुम्हारा चुनाव है लेकिन 

मुझे जैसे ही अपनी गलती का एहसास हुआ 

मैं बेचैन हुआ कि तुमसे मांग लूँ माफ़ी 

और मैंने हिम्मत कर मांगी थी माफ़ी भी उस रोज। 

हो सकता है तुम्हे लगा हो 

मैंने कुछ ज्यादा बड़ी गलती की होगी 

इसलिए मांगने आया था माफ़ी। 

मेरी नजर में गलती तो गलती थी 

तुम्हारी नजर में वो बड़ी-छोटी हुई 

तो समाज दोषी है जिसने तय किये हैं मानक 

इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। 

-प्रशांत 



Thursday, January 13, 2022

आखिर क्यों मैं तुम्हे ऐसी कहानी सुनाऊँ ?


उम्र के इस छोटे से पड़ाव पर 

अक्सर लड़के भविष्य के बारे में सोचा करते हैं ,

सपने देखा करते हैं या 

जिम्मेदारियां निभाया करते हैं। 

मैं भी इन दोनों के बीच कहीं तलाश रहा था 

जीवन के उद्देश्य को। 

न जाने उपरवाले को क्या मंजूर था ,

इसी उम्र में तुमसे मिलना हुआ। 

मुझे तुम्हारे संग बैठ चाँद और तारों की बातें करनी थी ,

भविष्य के लिए साझे सपने बुनने थे। 

किन्तु तुमने जाननी चाही मेरी कहानी 

यूँ तो मेरी कहानी में कुछ भी रोचक नहीं ,

फिर भी तुमने सुननी चाही तो मैंने सुनाई। 


क्या थी मेरी कहानी ?

मैं अब तक जो जिया था ,

वो शब्दों में ढल आया था मेरी जुबानी 

वो बचपन से लेकर जवानी के किस्से 

जिंदगी के अच्छे-बुरे, साफ और गंदे हिस्से। 

अंदेशा नहीं था सुनना क्यों चाहती थी तुम मेरी कहानी ?

सुनकर इसे मुझे परखने की कोशिश की 

अपनी कहानी तुम्हे मैंने एक कविता की तरह सुनाई 

और तुमने क्या किया ?

कुछ पल ही में अजनबी बना दिया !


आखिर मैं क्यों ऐसी कहानी सुनाऊँ जिसमे 

मेरे व्यक्तित्व में मैं ही न झलक पाऊं ?

उसमे कितना ही बढ़िया नायक का कृत्य हो 

या कितनी ही सुन्दर नायिका की बातें हो 

या हो कितना ही खुश कहानी का अंत 

तुम बतलाओ मुझे 

आखिर क्यों मैं तुम्हे ऐसी कहानी सुनाऊँ 

जिस कहानी में मैं मैं ही न रह पाऊं ?


मेरी कहानी में मैं कितना अच्छा हूँ 

और कितनी बुरी है मेरी भावनाएं 

अगर यह भी तुम निश्चित करोगी 

तो तुम ही बतलाओ मैं क्यों सुनाऊँ ?


अंत में तुम्हे क्या याद रखना है 

क्या मैंने कभी इस बात बात के लिए कहा है ?

या कहा है कि मेरी कहानी को तुम जरुर

लोगों को सुनाना पर मेरी नादानियों का जिक्र न करना। 

तुमसे मिलकर तुम्हे जानने के लिए 

क्या मैंने तुम्हारे गुजरे हुए कल का सहारा लिया है ?

नहीं न 

मैं तो चाँद के सामने गुजरते बादलों से नाराज था 

तुम्हारे चेहरे पर आते जाते भाव को पढ़ने की उधेड़बुन में था। 


तुमने ही मेरे अनसुने सच सुनने की इच्छा जताई 

मेरे जीवन के अच्छे पहलु सुनकर तुम प्रसन्न भी हुई ,

पर आखिर क्यों जैसे ही मैंने अपने हिस्से का दुःख सुनाया 

तुमने आपत्ति जताई ?

मेरी कहानी जैसे ही मैंने तुम्हे सुनाई 

वह केवल मेरी नहीं रही 

यह जानते हुए भी 

क्या कभी मैंने तुम्हे अपनी शर्ते बताई ?


मैं पूछता हूँ क्या हक़ है तुम्हे 

मेरी कहानी सुनने का 

जब तुम वो सब नहीं सुन सकती 

जो मैं जी चूका हूँ और सुनाना चाहता हूँ ?


उम्र के इस पड़ाव पर जब लड़के 

फरेब करना सीखते हैं 

मैंने तो तुम पर भरोसा किया 

तुम्हारे साथ मिलकर एक घर बनाना चाह रहा था 

और तुमने मेरा भरोसा तोड़ दिया। 


शुक्रिया 

-प्रशांत 




Wednesday, January 12, 2022

कई बार चाहा कि




 







कई बार चाहा कि कह दूँ तुमसे,

न तो मुझे कोई शेर ही याद है और 

न ही कोई शायरी लिख रखा है मैंने तुम्हारे लिए।  

अब तो चिठ्ठी भी नहीं लिखनी होती है 

कुछ शब्द, इंटरनेट और एक फ़ोन 

काफी है इजहार करने के लिए। 


तुमसे मिलने के पहले 

हस भी लिया करता कि 

क्या बेफज़ूल की बात है इश्क 

और ये कौन बेवकूफ लोग होते हैं 

जो इश्क किया करते हैं। 

कई बार चाहा कि कह दूँ तुमसे 

काश मैं तुमसे मिला ही न होता 

तो खोया रहता अपने वहम में। 


किसी के लिए होता होगा आसान 

जुबां पर सच को ला देना ,

ख्वाब किसी एक के लिए देखना ,

जिंदगी किसी दूसरे के साथ जी लेना। 

कई बार चाहा कि कह दूँ तुमसे 

न तो अब मैं ख्वाब ही देख पाउँगा 

किसी और के लिए और 

न जी ही पाउँगा खुद के लिए। 


जिन्हे तजुर्बा था 

उन्होंने इतिल्ला किया था मुझे 

किसी के लिए मेरी आँखों में

 प्रेम दिख रहा था उन्हें 

उस वक़्त जब मैं खुद अनजान था इससे। 

भांपने वाले ये भी भांप गए थे 

कि मैं इजहार नहीं कर पाउँगा 

उन्हें लगा कि मेरा दिल टूट जायेगा 

पर सीख जायेगा। 

मुझे लगा कि इसमें सीखने लायक 

कुछ है ही नहीं 

मैं गलतियां करूँगा तो तुम सुधार दोगी। 

कई बार चाहा कि कह दूँ तुमसे 

मैंने सिखने के लिए तुमसे कोई 

आस नहीं लगाई थी। 


लोग कहते हैं कि 

मैंने इस मामले में जल्दबाजी की 

इसलिए तुम समझ नहीं पायी। 

कई बार चाहा कि कह दूँ तुमसे 

न ही मैंने तुम्हारा इंतजार ही किया था 

और न ही मैं करने वाला था ,

तुमसे मिलना ही अप्रत्याशित था 

तुमसे मिलने के पहले तक 

मेरे लिए रुक जाने का 

अर्थ था थक जाना। 


कई बार चाहा कि मांग लूँ तुमसे माफ़ी 

और कह दूँ कि 

मुझे एक और मौका दे दो 

कि कह सकूँ हरेक बात के लिए शुक्रिया। 

-प्रशांत 


Tuesday, January 11, 2022

ग्रामीण समाज में औरतों के नाम क्यों नहीं होते हैं ?

  




आज एक बात बतलाता हूँ, जो मालूम तो सबको है परन्तु कोई बतलाना नहीं चाहता है।  यह कोई निषेद्य या गैर कानूनी बात नहीं है किन्तु जिनसे सम्बंधित यह बात है शायद वे भी इस दबी हुई सच को बाहर नहीं ला पाते हैं। अगर इस बात पर उस समाज में कोई चर्चा हो तो इसका निष्कर्ष निकलेगा एक सार्वजनिक मौन। 

  इसे आपने भी महसूस की होगी अगर आप किसी गांव में दो पल को ठहरे होंगे। शहरों में इस तरह की बातों  के लिए एक शब्द प्रयोग में आता है - मुद्दा। यानि मैं आपको एक मुद्दे के बारे में बतलाने जा रहा हूँ जो कितना प्रासंगिक है और कितना जरुरी है यह तय आपको करना है। शहरों में लोग स्वयं को प्रगतिशील कहना पसंद करते हैं और अगर न भी करते हों तो इतना तो अवश्य करते हैं कि इस तरह की मुद्दों के लिए क्लबों, सोसाइटियों, बैठकों ( निजी और सार्वजनिक ) में चर्चा करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मिडिया में इस सम्बन्ध में लोगों के विचार और वक्तव्य आते रहते हैं किन्तु गांव के पुल ( पुल अर्थात वह छोटी पुलिया जहाँ गांव के लोग इकठ्ठा होते हैं और गांव के हर मुद्दे पर चर्चा करते हैं ) पर यह बात कभी मुद्दा नहीं बन पाती है। बात है गांव से जुडी हुई या कहूँ ग्रामीण समाज से जुडी हुई और समाज की महत्वपूर्ण कड़ी - औरतों से जुडी हुई। 

   क्या आपको मालूम है गांव की औरतों काअस्तित्व तो होता है पर नाम नहीं होता है। नाम का न होने से पहचान भी नहीं होती है ऐसी बात नहीं है। जो उनके वास्तविक नाम होते हैं वो केवल कागजों में रहते हैं, गांव में या मोहल्ले में भी कोई उनके असली नाम से नहीं पुकारता है। घर में प्रवेश करते ही एक शादीशुदा औरत को कई नए नाम दे दिए जाते हैं। जैसे बड़की, छोटकी या मंझली आदि। कई बार गांव वाले खुद ब खुद उनके पतियों के नाम से उनको जोड़ते हैं जैसे लखनवा-वाली , छोटुआ-वाली या बहरा-वाली। अक्सर लोग औरतों को उनके बच्चों के नाम से भी पुकारते हैं - गुडुआ की माई या महेश्वा की भौजाई आदि। जाति सूचक शब्दों से पुकारा जाना तो आम बात होता है गांव में - ठकुराइन, चमैनिया, बढिनिया, पड़ियाइन आदि। अगर किसी गांव में एक महिला मुखिया हो तो लोग उसे मुखियाइन कह सम्बोधित कर लेंगे किन्तु उसका असली नाम राधा देवी नहीं लेंगे। सम्मानजनक स्थिति में कोई औरत कार्य कर रही है तो भी बमुश्किल ही नाम लिया जायेगा, वहां तो उसके पहचान को ही नाम बना दिया जाता है जैसे - मास्टरनी साहिबा, या डॉक्टरनी साहिबा। जब तक लड़कियां ब्याही नहीं जाती है तब तक उनका नाम रहता है - सितवा, कजली , अन्नू , सुशीला, मधु किन्तु जैसे ही उनका शादी हो जाता है उसके अपने ही गांव में अब उसको ससुराल गांव के नाम से जाना जाने लगता है। अगर सुशीला का शादी नवादा में हुआ तो उसका नया नाम हो जाता है - नवादा वाली। औरतें बकरियां चराते समय , लकड़ियां बीनते वक़्त कभी कभार एक दूसरे को नाम लेकर पुकार लेती है , शायद इससे उनके जिन्दा होने का एहसास उनको होता होगा।  हैरत की बात तो यह भी होती है पुरुष ही केवल इस तरह के नए नामों से औरतों को नहीं पुकारते हैं बल्कि धीरे धीरे औरतें भी एक दूसरे की पहचान इन शब्दों को ही बना लेती हैं और ये पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह से चलता रहता हैं। किसी औरत को मुर्गिया कहा जाता है तो किसी को दखनाही। गांव में किसी विक्षिप्त औरत की पहचान होती है - पगली। कई बार अचानक ही डायन कहकर किसी को पुकारा जाता है और फिर गांव में हिंसा होती है असभ्यता का पुरा प्रदर्शन केवल शब्द के खातिर होता है।

 ग्रामीण समाज में पुरुष एक दूसरे को इतने इज्जत से नाम लेते हैं जैसे कोई भक्त अपने भगवान को पुकारता हो किन्तु इसी समाज में औरतों को बेनाम रखने की प्रथा क्यों ? मुखिया जी केवल मुखिया जी नहीं होते हैं उनका नाम होता है। रामदेव भाय, रघु जी, हबीब मिया, सुनील, रामजतन, प्रशांत बाबू आदि और कितने ही सुन्दर नाम से गांव गुंजायमान रहता है। जाति, धर्म से जुड़े नाम बड़े ही अदब से लिया जाता है। किन्तु औरतों के नाम सिवाय वोटिंग के समय ,पंचायत के बैठकी में किसी योजना का लाभ लेते समय ही सुनाई पड़ता है। यह प्रश्न बार बार दुहराने लायक है कि जो समाज औरतों को नकारना तो चाहता है किन्तु नकार नहीं पाता है आखिर क्यों उनके नाम को बदल कर पहचान मिटाना चाहता है ?

- प्रशांत 


 


Friday, January 07, 2022

मैंने उन आँखों में दुनिया देखनी चाही


उस रोज ऐसा क्या हुआ होगा 

कि मैंने उन आँखों में दुनिया देखनी चाही ?


अपने चेहरे पर जैसा मैं अक्सर रहता हूँ 

दुनिया भर की शिकन लिए बैठा था। 

गुस्से में था उस रोज मैं ,

शिकार पर निकले एक भेड़िये की परछाई थी मेरे चेहरे पर 

गुस्से में सामने क्या ही दीखता है किन्तु 

उस पल वो दो आँखें दिखीं। 

उन दो आँखों में मुझे वो सब देखा 

जिसकी खोज थी मुझे 

या शायद जिसे खोजने की अंतहीन कोशिश करता मैं। 


उसने मुझे पहली नजर में शैतान भेड़िया समझा होगा ,

शायद इसलिए वो मुझसे बचने लगी। 

मैं जब ये समझा तब तक देर हो चुकी थी किन्तु 

मुझे उसकी आँखों में मेरा भविष्य दिखा था 

मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था। 

इसलिए मैंने हर वो हरकत की 

जिससे अपनी गलती सुधार सकूँ 

चेहरे पर मासूमियत लाने का प्रयास किया। 

पर वो कोई मेमना तो थी नहीं 

कि एक भेड़िये को खरगोश समझने की गलती करती। 

ख़ैर 

जब भी अवसर मिला मैंने करीब आने की कोशिश की 

अपनी कहानी सुनाई , उसकी सुननी चाही 

मुझे क्या मालूम था मैंने ये सब करके 

केवल उसे परेशां किया था। 

इससे बुरा क्या होगा किसी के लिए 

कि कोई उसे दोस्त भी कहे और 

दोस्ती भी न रखे 

जैसे सर्दी के आग में गर्मी  न हो। 

जैसे फूलों में आकर्षण न हो। 


मैं ये बात जानकर कि अब जो हो गई है 

उसे बदल नहीं सकता, चेहरे पर उदासी लाई 

उसकी आँखों में अपने लिए सहानुभूति खोजी  किन्तु 

वो कोई बच्ची तो थी नहीं कि 

असलियत और नाटक में फर्क न जानती हो। 


उस रोज आखिरी बार जब उसकी आँखों को देखा 

तो मुझे लगा कि दुनिया थम क्यूं नहीं जाती है ?

ये जानते हुए कि मेरे चाहने से एक रेल तक तो रुक नहीं सकती है 

मैं दुनिया रोकनी चाही 

सत्य को असत्य करना चाहा था। 


नजरों से ओझल होते ही 

कितना परेशां हुआ मैं 

जिन एक दो को जानता था मैं 

उनसे जाने अनजाने में उसकी ही बातें करने लगा। 


एक हारे हुए इंसान की भांति 

अपनी एकदम छोटी उपलब्धियों पर भी 

कुछ तारीफ की अपेक्षा रखे हुए 

सुनाये जा रहा था उस सच को 

जो मेरे अलावा अब तक उसकी 

आंखे ही जानती थी। 


अब लोग पूछते हैं कि 

क्या हुआ ?

सिवाय बातों को काटने के मेरे पास चारा ही 

क्या बचता है ?


एहसास होता है अब 

मैं कभी उससे ये नहीं कह पाया कि 

'आपकी आँखों ने मुझे प्रेम मतलब समझाया है'

मैं उसे पाने की इतनी जल्दी में था कि 

उसके साथ उन लम्हों को भी खो दिया। 

मैंने यहाँ खोना लिखा है 

नुकसान नहीं 

मैंने बाजार के किसी वस्तु की तरह 

उसे पाने की कोशिश की थी ,

यह सौदा तो था नहीं 

यह तो था प्रेम। 

इसमें बेईमानी तो थी नहीं 

और उस वक़्त मैं शायद इंसान था नहीं 

मैं था एक असफल व्यापारी। 

उस रोज की बेसब्री पर न अब पछताता हूँ 

और न ही हँसता हूँ अपनी बचकानी हरकतों पर 

क्यूंकि उस रोज मेरे जीवन में केवल एक घटना घटी थी 

वह था  उन आँखों में सच का दिख जाना। 


उस रोज के बाद अब जब भी 

दो पल का चैन मिलता है मुझे 

वो दो आंखे दिखती है 

दिखती है उन सपनो का बोझ 

जो अब बिना उनकी पूरी नहीं हो सकती है 

न मैं अब झरने किनारे बैठूंगा 

और न अब कभी किसी से आँखों की सुंदरता की चर्चा करूँगा। 

- प्रशांत 💓







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