अब मैं तुम्हे याद नहीं करना चाहता
फिर क्यूँ जैसे ही दो पल का चैन मिलता है,
तुम चली आती हो मन के अँधेरे के कोने से ?
जैसे कोई तितली आती है
उड़ती हुई सरसों के पीले फूलों पर ,
जैसे कोई गिलहरी फुदकती हुई
चढ़ जाती है पीले कनेर के पौधे पर।
मैं न तो तितली को मना कर सकता हूँ
और न ही गिलहरी को रोक सकता हूँ।
किन्तु क्या मेरे मन पर भी
मेरा वश नहीं चलेगा ?
यूँ तो मैं थोड़ा आलसी हूँ ,
कोई काम करना नहीं चाहता।
पहले माँ के कई बार समझाने पर
घर के काम किया करता था।
आजकल मेरे पास बहुत से काम है,
हर दिन सुबह से शाम तक
सौ तरह के मसले होते हैं
जिन्हे हल करते-करते रात हो जाती है।
घर की जिम्मेदारी तो है ही,
दुनियादारी भी देखनी पड़ती है।
गांव-समाज की अपनी कहानियां है।
इतना और बहुत कुछ करने के बावजूद
जब भी खाली समय मिलता था,
मन मेरा सपने देखा करता था।
आजकल वो भी तुम्हारी यादों ने छीन लिया है,
इसलिए मैं अब तुम्हे याद नहीं करना चाहता हूँ।
- प्रशांत
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