आज एक बात बतलाता हूँ, जो मालूम तो सबको है परन्तु कोई बतलाना नहीं चाहता है। यह कोई निषेद्य या गैर कानूनी बात नहीं है किन्तु जिनसे सम्बंधित यह बात है शायद वे भी इस दबी हुई सच को बाहर नहीं ला पाते हैं। अगर इस बात पर उस समाज में कोई चर्चा हो तो इसका निष्कर्ष निकलेगा एक सार्वजनिक मौन।
इसे आपने भी महसूस की होगी अगर आप किसी गांव में दो पल को ठहरे होंगे। शहरों में इस तरह की बातों के लिए एक शब्द प्रयोग में आता है - मुद्दा। यानि मैं आपको एक मुद्दे के बारे में बतलाने जा रहा हूँ जो कितना प्रासंगिक है और कितना जरुरी है यह तय आपको करना है। शहरों में लोग स्वयं को प्रगतिशील कहना पसंद करते हैं और अगर न भी करते हों तो इतना तो अवश्य करते हैं कि इस तरह की मुद्दों के लिए क्लबों, सोसाइटियों, बैठकों ( निजी और सार्वजनिक ) में चर्चा करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मिडिया में इस सम्बन्ध में लोगों के विचार और वक्तव्य आते रहते हैं किन्तु गांव के पुल ( पुल अर्थात वह छोटी पुलिया जहाँ गांव के लोग इकठ्ठा होते हैं और गांव के हर मुद्दे पर चर्चा करते हैं ) पर यह बात कभी मुद्दा नहीं बन पाती है। बात है गांव से जुडी हुई या कहूँ ग्रामीण समाज से जुडी हुई और समाज की महत्वपूर्ण कड़ी - औरतों से जुडी हुई।
क्या आपको मालूम है गांव की औरतों काअस्तित्व तो होता है पर नाम नहीं होता है। नाम का न होने से पहचान भी नहीं होती है ऐसी बात नहीं है। जो उनके वास्तविक नाम होते हैं वो केवल कागजों में रहते हैं, गांव में या मोहल्ले में भी कोई उनके असली नाम से नहीं पुकारता है। घर में प्रवेश करते ही एक शादीशुदा औरत को कई नए नाम दे दिए जाते हैं। जैसे बड़की, छोटकी या मंझली आदि। कई बार गांव वाले खुद ब खुद उनके पतियों के नाम से उनको जोड़ते हैं जैसे लखनवा-वाली , छोटुआ-वाली या बहरा-वाली। अक्सर लोग औरतों को उनके बच्चों के नाम से भी पुकारते हैं - गुडुआ की माई या महेश्वा की भौजाई आदि। जाति सूचक शब्दों से पुकारा जाना तो आम बात होता है गांव में - ठकुराइन, चमैनिया, बढिनिया, पड़ियाइन आदि। अगर किसी गांव में एक महिला मुखिया हो तो लोग उसे मुखियाइन कह सम्बोधित कर लेंगे किन्तु उसका असली नाम राधा देवी नहीं लेंगे। सम्मानजनक स्थिति में कोई औरत कार्य कर रही है तो भी बमुश्किल ही नाम लिया जायेगा, वहां तो उसके पहचान को ही नाम बना दिया जाता है जैसे - मास्टरनी साहिबा, या डॉक्टरनी साहिबा। जब तक लड़कियां ब्याही नहीं जाती है तब तक उनका नाम रहता है - सितवा, कजली , अन्नू , सुशीला, मधु किन्तु जैसे ही उनका शादी हो जाता है उसके अपने ही गांव में अब उसको ससुराल गांव के नाम से जाना जाने लगता है। अगर सुशीला का शादी नवादा में हुआ तो उसका नया नाम हो जाता है - नवादा वाली। औरतें बकरियां चराते समय , लकड़ियां बीनते वक़्त कभी कभार एक दूसरे को नाम लेकर पुकार लेती है , शायद इससे उनके जिन्दा होने का एहसास उनको होता होगा। हैरत की बात तो यह भी होती है पुरुष ही केवल इस तरह के नए नामों से औरतों को नहीं पुकारते हैं बल्कि धीरे धीरे औरतें भी एक दूसरे की पहचान इन शब्दों को ही बना लेती हैं और ये पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह से चलता रहता हैं। किसी औरत को मुर्गिया कहा जाता है तो किसी को दखनाही। गांव में किसी विक्षिप्त औरत की पहचान होती है - पगली। कई बार अचानक ही डायन कहकर किसी को पुकारा जाता है और फिर गांव में हिंसा होती है असभ्यता का पुरा प्रदर्शन केवल शब्द के खातिर होता है।
ग्रामीण समाज में पुरुष एक दूसरे को इतने इज्जत से नाम लेते हैं जैसे कोई भक्त अपने भगवान को पुकारता हो किन्तु इसी समाज में औरतों को बेनाम रखने की प्रथा क्यों ? मुखिया जी केवल मुखिया जी नहीं होते हैं उनका नाम होता है। रामदेव भाय, रघु जी, हबीब मिया, सुनील, रामजतन, प्रशांत बाबू आदि और कितने ही सुन्दर नाम से गांव गुंजायमान रहता है। जाति, धर्म से जुड़े नाम बड़े ही अदब से लिया जाता है। किन्तु औरतों के नाम सिवाय वोटिंग के समय ,पंचायत के बैठकी में किसी योजना का लाभ लेते समय ही सुनाई पड़ता है। यह प्रश्न बार बार दुहराने लायक है कि जो समाज औरतों को नकारना तो चाहता है किन्तु नकार नहीं पाता है आखिर क्यों उनके नाम को बदल कर पहचान मिटाना चाहता है ?
- प्रशांत
Kya parkhi observation hai ..Proud of u bhai...Aise hi samajik muddon pr likhte rho👌
ReplyDeleteकोशिश जारी है। प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया ।
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