पुस्तकालय मेरे लिए बचपन से एक ऐसी जगह रही है मुझे संसार के सभी झंझटों से एक क्षण में मुक्त कर देती है और मन के उथल पुथल को शांत करती है। आप सबके जीवन में कोई न कोई ऐसी जगह अवश्य होगी जो आपको संसार से एक क्षण को ही सही मुक्त करता हो। प्रसिद्ध साहित्यकार शरतचंद्र की जीवनी में मैंने पढ़ा है कि गांव के पुराने महल के बगल में एक बड़ा वृक्ष था, उसकी डाल के बीच में उन्होंने एक ऐसा ही जगह बनाया था यहां वह अपना वक्त बिताना पसंद करते थे नितांत एकांत में, किंतु पुस्तकालय एकांत के लिए नहीं होता है। पुस्तकालय में आवाज भले ना हो पर चहलकदमी जरूर होती है, पुस्तक प्रेमी व स्वाध्यायी लोगों की आंखें केवल पुस्तकों पर नहीं जमीं होती है, वह वहां बैठकर महसूस कर रहा होता है पुस्तकालय की जीवंतता को।
बहरहाल मैं इस बात पर था कि पुस्तकालय का मेरे जीवन में क्या स्थान रहा है। मई-जून की तपती गर्मी में मैं पटना पहुंचा था पढ़ने के लिए, पढ़ने के लिए इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं पटना की जिंदगी जी नहीं पाया कभी। स्कूलों और कोचिंग आदि के चक्कर लगाने के बाद जब मेरा दाखिला St Karen's high school में हुआ तो जितनी जल्दी मेरे दोस्त नहीं बने थे वहां, उससे पहले मैंने लाइब्रेरी का कार्ड बनवा लिया था, पहले तो सप्ताह में एक पीरियड लाइब्रेरी के लिए होता था जो बाद में महीने में एक हो गया लेकिन उस पुस्तकालय के सबसे आखरी कोने में जहां अव्यवस्थित किताबें लाइब्रेरियन के हस्तक्षेप का इंतजार करती थी उसी डेस्क पर मेरा नियमित ठिकाना बन गया। मैंने मैम से हिचकते हुए एक दिन पूछ ही लिया कि क्या मैं लंच टाइम में आधा घंटा यहां बैठ सकता हूं? उन्होंने हामी भर दी (मैं मैम का नाम तो जान नहीं पाया किंतु उनका आभारी जीवन भर रहूंगा) और अगले दिन से मैं नियमित रूप से लंच होते ही उस डेस्क पर तरह-तरह की किताबों के पन्ने पलटने लगा। मुझे याद है कि मैंने गांधीजी की आत्मकथा- "my experiments with truth" के कुछ पन्ने पढ़ना शुरू किया और उसके बाद अलजेब्रा की किताब के कुछ प्रश्न हर रोज बनाना शुरू किया। जब भी यह सब करने का मन नहीं करता तो कहानियों और लोक कथाओं की किताबें पढ़ता था। कुछ महीनों बाद मैं क्लास से छुट्टी होने के बाद भी लाइब्रेरी में जाने लगा करीब 1 घंटा के लिए हर रोज। कभी इस पुस्तक को तो कभी उस पुस्तक को पढ़ने की कोशिश करता, कभी-कभी एक ही पुस्तक को दो-तीन सप्ताह तक हर रोज 15-20 मिनट पढ़ता और यह सिलसिला जनवरी 2015 तक चलता रहा जब मैंने स्कूल छोड़ा। St Karen's से जुड़ी एक और याद है जिसने शायद मेरा पुस्तकालय के प्रति नजरिया कुछ हद तक बदल दिया। बात उस दिन की थी जिस दिन मेरी पहली मुलाकात हुई थी स्कूल के डायरेक्टर D. P. Galstaun सर से। लंच के बाद मैं किसी दूसरे स्टूडेंट के साथ किस बात पर हंसे जा रहा था, बाकी स्टूडेंट्स भी आपस में कुछ ना कुछ कर रहे थे अचानक एक वृद्ध व्यक्ति कोट-पैंट पहनकर क्लास में दाखिल हुए, उनका कद कम था इसलिए मैं ध्यान नहीं दे पाया था और लगातार हंसे जा रहा था जबकि पूरा क्लास शांत हो चुका था। दुर्भाग्य से कहूं या सौभाग्य से उन्होंने मुझे देखकर कुछ बोला जो मुझे बुरा लगा, उसके बाद उन्होंने आधे घंटे का एक जबरदस्त भाषण दिया। बाद में मुझे पता चला कि वह स्कूल के डायरेक्टर थे। उनके जाने के तुरंत बाद मैं भी निकला कि कम से कम सॉरी तो बोल दूं कि ऐसा अनजाने में हुआ है मुझसे। मैं उनके ऑफिस के बाहर जाकर खड़ा हो गया, सर झुकाकर। उन्होंने शायद कैमरा से देख लिया था मुझे किसी को भेजा अंदर आने के लिए और फिर शुरू हुआ पुस्तक प्रेम की अलग कहानी। मैं अंदर गया भी और माफी भी मांगा, यह सब एक तरह से पहली बार हो रहा था,एक कारण यह भी था कि मैं उस वक्त अंग्रेजी बोलने में कॉन्फिडेंट नहीं था और गलतियां करता था किंतु फिर भी मैंने किसी न किसी तरह अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कोई बात नहीं और बैठने को इशारा किया, कुछ बातें की और अपने बचपन की कहानी सुनाई। जाते वक्त एक किताब दी यह कह कर जब पढ़ लेना तो मुझसे मिलकर दूसरी ले जाना। उसके बाद मेरा उनसे मिलना और बातें करना एक सिलसिला शुरू हुआ। कभी लंच टाइम में तो कभी क्लास खत्म होने के बाद, यहां तक कि क्लास टाइम में भी। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पुस्तकालय कक्ष को भी मुझे दिखाया और मैं समझ पाया कि आखिर वे वैसा क्यों थे? स्कूल के एक शिक्षक से पता चला कि वें हर दिन शाम को खुदा बख्श लाइब्रेरी भी पहुंचते हैं जबकि घर में भी उनका एक पुस्तकालय है, उनका गजब का पुस्तकालय प्रेम था। इस वजह से खुदा बख्श लाइब्रेरी जाने की मेरी भी इच्छा हुई, मैं वहां गया भी तुम तो लाइब्रेरी कार्ड नहीं बनवा पाया कुछ कारणों से।

जब 2014 में मैं पुनाइचाक में रहने लगा था तो 1 दिन साइकिल से लौटते वक्त मुझे एक दरवाजा कुछ अजीब सा लगा। वह ना तो घर का दरवाजा था, ना ही दुकान या सरकारी कार्यालय का। मैंने अंदर झांका तो सामने एक मूर्ति लगी हुई थी और उसके नीचे उनका नाम लिखकर मेमोरियल पुस्तकालय लिखा हुआ था। मूर्ति के बाएं ओर एक कमरा बना हुआ था जिसमें ताला लगा हुआ था और दाहींने ओर टीन शेडिंग के नीचे बड़ा सा टेबल और कुछ कुर्सियां लगी हुई थी। चारों तरफ कुछ फूल के पौधे लगे थे और टेबल पर एक (शायद दो ) अखबार पड़ा हुआ था। शाम का मेरा ठिकाना बन गया वह पुस्तकालय जहां बैठकर मैं भी सोचता था दुनिया जहां की बातें, पढ़ा करता था अखबार व कुछ किताबें, सुना करता था बुजुर्गों की गपशप और बातें। मैंने उस रूम को खुलते कभी नहीं देखा और यह उत्सुकता आज भी है कि उस रूम में कितनी किताबें अपने पढ़ने वालों का इंतजार करती रह गई।
उन्हीं दिनों जब मैं बेली रोड पर साइकिल चला कर घर लौटा करता था तो रेहड़ी पर मैगजीन बेचने वालों के पास रुकना मेरा प्रिय शगल बन गया था। मैं रुक कर कम से कम 1 आर्टिकल तो पढ़ ही लिया करता था और कभी कभार अच्छा लगने पर मैगजीन खरीदा करता था। मुझे उन्होंने पढ़ने से कभी रोका नहीं और मैं कभी रुका भी नहीं। समय की कमी भी नहीं थी और किसी तरह का झंझट भी नहीं था। हां कभी कभी रात 8:00 बजे कोचिंग से निकलता था तो डेरा पहुंचने में 10:00 बज जाते थे इन सब चक्करो की वजह से। पुनाइचाक के अंदर एक पुस्तक दुकान थी छोटी सी, उस दुकान को चलाते थे एक भैया जिनका चेहरा अभी भी मेरे मन मस्तिष्क में अंकित है। अपनी छोटी बेटी को लेकर वह दुकान में बैठा करते थे, तब स्मार्टफोन का क्रेज नहीं था इसलिए वह खूब बातें किया करते थे। मैं भी बातें करने में माहिर था, हमारी दोस्ती हो गई। मैं दुकान के बाहर टेबल पर रखकर उनकी पत्रिकाएं पढ़ा करता था। मुझे मालूम था कि इस तरह कहना दुकानदारी के नियम के खिलाफ है पर यह भी जानता था कि इस तरह का कोई नियम भी नहीं है। कभी-कभी वह कुछ काम से निकल जाते थे तो मैं ही देख लिया करता था उस दुकान को। शाम 5:00 बजे से करीब 6:00 बजे तक हर दिन वहां जाना मेरा रुटीन में शामिल हो चुका था। यह सब करीब 6 महीने तक चलता रहा लेकिन परीक्षा के बाद एक दिन जब मैं वहां गया तो पता चला की दुकान बंद हो गई है और वह वहां नहीं मिले।
रजौली में भी एक पुस्तक दुकान पर मेरा काफी समय गुजरा था बचपन में फर्क केवल इतना था कि रजौली में गिन कर एक-दो मैगजीन ही आता था उस दुकान में। रजौली की बात करूं तो याद आता है 2009 से लेकर 2013 तक की कुछ बातें। जैसे सरस्वती विद्या मंदिर में एक कमरा जिस पर पुस्तकालय लिखा हुआ था, उसका बंद रहना हमेशा ही मुझे खटकता था। मैंने संतोष आचार्य जी से बात किया था और एक दिन उन्होंने मुझे उस रूम की चाभी दी। अंदर एक अजीब सी खुशबू थी पर अंधेरा था और सीलन था। एक अलमारी में कुछ किताबें थी, मैंने उन्हें पलट कर देखा और कई दिनों तक मैं रजिस्टर पर किताबों के नाम आदि चढ़ाना शुरू किया। लगभग उसी वक्त मेरे घर में पड़ी करीब 200 किताबें मां के कहने पर पुस्तकालय में दान कर दिया ज्यादातर स्कूल की किताबें थी उनमें। अगले कुछ महीनों में मुझे स्कूल का छात्र लाइब्रेरियन बना दिया गया और मैंने उत्साह पूर्वक कोशिश किया की पुस्तकालय सुचारू रूप से चालू हो जाए। बहुत से छात्र किताबें घर ले जाने भी लगे थे। यहां भी एक ही दिक्कत थी की किताबे बहुत ही कम थी। खैर यह सब करीब 2012-13 तक चलता रहा।
2012 13 में रजौली इंटर विद्यालय में मैं जाने लगा था, हालांकि पढ़ाई लिखाई नहीं होती थी एक आध दिन को छोड़कर फिर भी मैं जाता था क्योंकि मुझे यहां का विज्ञान प्रयोगशाला वास्तव में विज्ञान प्रयोगशाला मालूम पड़ता था। विज्ञान प्रयोगशाला में दर्जनों बार गया होउंगा मैं एक प्रोजेक्ट के चक्कर में। किंतु 1 दिन ही सौभाग्य प्राप्त हुआ लाइब्रेरी में जाने का, बड़ा साबुन और कम से कम 10 अलमारियां किताबों से खचाखच भरी हुई। 10:15 मिनट में ही रूम लॉक हो गया और फिर कभी नहीं खुला। दुर्भाग्य स्कूल का था या फिर हमारा आज तक समझ में नहीं आया। हां यह बात जेहन में बैठ गई कि इस तरह के पुस्तकालय जिला में कम से कम तो 20 से ऊपर ही होने पर कोई काम का नहीं। समाज के लिए तो बिल्कुल ही बंद, कम से कम छात्र छात्राओं के लिए तो खुलता। खैर आज तक कोई सकारात्मक खबर नहीं आई पुस्तकालयों के बारे में। सरकारी स्कूलों में किताबे तन्हा हो कर रही है और निजी विद्यालयों के पास पैसा कमाने से फुर्सत ही नहीं है। समाज के नेताओं से तो अपेक्षा ही करना व्यर्थ है। स्कूली जीवन में ही सरकार की ओर से एक एक लाइब्रेरी वैन में भी गया हूं पर वह तो 1 सप्ताह में वापस चली गई थी और फिर मुलाकात हुआ नहीं।
कोलकाता में जब रहता था तो उस वक्त पुस्तकों से इतना लगाव नहीं था जितना होमवर्क के नाते पढ़ना पड़ता उतना ही पढ़ता था। किंतु याद आता है कोलकाता का वह पार्कस्ट्रीट जो मैं जीवन में मात्र एक बार ही जा पाया था पापा के साथ। चारों और किताबें पसरी हुई, वह दृश्य आज भी जीवंत हो उठता है। पटना में रहने लगा था तो साइकिल से महीने में एक बार गांधी मैदान के बगल में पुरानी किताबों के अड्डे पर जरूर पहुंचता था। तरह तरह की किताबें, फटी- पुरानी, व्यर्थ- अनमोल सब वहां रहता था। मैं उन में खो जाता था और मोलभाव करके कुछ किताबें शाम को ले आया करता था ज्यादातर गणित और भौतिकी की क्योंकि उपन्यासों से मेरा वास्ता उस वक्त नहीं हुआ था। मैं गोल घर के बगल से गुजरता था पर आज तक नहीं जा पाया, गांधी मैदान इस साल फरवरी में पहली बार गया जब पटना गया हुआ था ऐसे ही किसी कारण से।
अखबारों में ठंड के दिनों में अक्सर पढ़ा करता था कि पुस्तक मेला लगा हुआ है पटना या गया में तब भी जा नहीं पाया कभी। पहली बार पुस्तक मेला गया मैं दिल्ली के प्रगति मैदान में। पूरा दिन पुस्तकों के बीच गुजर गया और खरीदा मात्र एक पुस्तक क्योंकि पैसे थे नहीं उस वक्त। खैर दिल्ली में दरियागंज की पुरानी किताबों का अड्डा रहा है। छोटे भाई के साथ कई बार गया मैं वहां। दरियागंज से किलो के भाव किताबें लाना कैसे भूल पाऊंगा मैं?
ऐसे ही यादों से बना हुआ है जीवन लेकिन पुष्पकालय के साथ एक अजीब सा बंधन महसूस करता हूं मैं और मैं चाहता हूं कि दुनिया का हर इंसान इस बंधन को महसूस कर पाए।
इन सब कारणों से मैंने भी सोचना शुरू कर दिया था कि मैं भी अपने गांव में एक पुस्तकालय जरूर बनते देखुंगा। कभी यह नहीं सोचा था कि मैं स्वयं ऐसा करूंगा। दिल्ली से वापस लौटने के बाद 2019 में मैं किताबे घर पर मंगा कर पढ़ने लगा पर इसमें मुझे यह बात हमेशा सालती रही कि जिनको मेरे जैसा सौभाग्य नहीं है वह कैसे पढ़ेंगे इसलिए मैं गांव के और आसपास के गांव के समझदार लोगों से इस संबंध में बात करने की कोशिश करने लगा कि क्या ऐसा संभव है कि एक सार्वजनिक पुस्तकालय खोला जाए यह सब एक डेढ़ साल चला। दोस्तों से बात तो करीब चार-पांच सालों से हो रही थी लेकिन इस साल फरवरी में एक दिन मैंने खुद ही फर्स्ट स्टेप लिया और मैंने व्हाट्सएप पर तथा फेसबुक पर एक मैसेज डाला कि मैं एक ऐसा प्रयास करने जा रहा हूं जिसमें आप सब की भागीदारी जरूरी है करीब 20 दोस्तों ने सहयोग के लिए हां कहा। किसी ने ₹50 दिए तो किसी ने ₹100 और बहुतों ने अपनी पुरानी पुस्तकें दी। पापा को जब यह बात मालूम चला तो उन्होंने दो कमरों का इंतजाम कर दिया और फिर क्या था अपना पुस्तकालय का ठिकाना मिल गया।
उसके बाद दो मीटिंग हुआ जिसमें अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा हुई कैसे टेबल बनना है कैसे किताबे लाना है इत्यादि। मैं लगातार 10 दिनों तक अलग-अलग लोगों से मिलने की कोशिश करता रहा और उसके बाद लॉक डाउन हो गया तब तक मेरे पास 500 किताबें जमा हो चुकी थी और ₹17000 आ चुके थे। लॉकडाउन में Pratham Books एक डोनेशन लिंक एक्टिवेट किया जिसमें ₹10000 डोनेशन मिले उसका ईमेल हाल में ही प्राप्त हुआ है जिससे मुझे करीब 160 बच्चों की किताबें 10- 12 दिनों में प्राप्त होगी। बिहार में अभी भी लॉकडाउन है परंतु फिर भी मैं प्रतिदिन वहां पहुंचता हूं।
उद्देश्य केवल इतना है की गांव के आसपास के बच्चे व बुजुर्ग दुनिया जहान की बातें करने के लिए एक सकारात्मक माहौल तैयार करें पुस्तकालय में और अपने-अपने रुचि की हर किताब पढ़ पाए।
उसके बाद दो मीटिंग हुआ जिसमें अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा हुई कैसे टेबल बनना है कैसे किताबे लाना है इत्यादि। मैं लगातार 10 दिनों तक अलग-अलग लोगों से मिलने की कोशिश करता रहा और उसके बाद लॉक डाउन हो गया तब तक मेरे पास 500 किताबें जमा हो चुकी थी और ₹17000 आ चुके थे। लॉकडाउन में Pratham Books एक डोनेशन लिंक एक्टिवेट किया जिसमें ₹10000 डोनेशन मिले उसका ईमेल हाल में ही प्राप्त हुआ है जिससे मुझे करीब 160 बच्चों की किताबें 10- 12 दिनों में प्राप्त होगी। बिहार में अभी भी लॉकडाउन है परंतु फिर भी मैं प्रतिदिन वहां पहुंचता हूं।
उद्देश्य केवल इतना है की गांव के आसपास के बच्चे व बुजुर्ग दुनिया जहान की बातें करने के लिए एक सकारात्मक माहौल तैयार करें पुस्तकालय में और अपने-अपने रुचि की हर किताब पढ़ पाए।
आपका
प्रशांत
I am proud of you brother.
ReplyDeleteThanks Ashutosh.
DeleteTumne hmara jikr to Kiya hi Nahi 😞😞😞
ReplyDeleteकरुंगा तुम्हारा भी करुंगा जब भारत का प्रधानमंत्री बनुंगा तब
ReplyDeleteVery good blog bro.please keep continue
ReplyDeleteThanks Rajeev Bhai.
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