Wednesday, July 22, 2020

मैं क्यों पुस्तकालय खोलना चाहता हूँ ?


पुस्तकालय मेरे लिए बचपन से एक ऐसी जगह रही है मुझे संसार के सभी झंझटों से एक क्षण में मुक्त कर देती है और मन के उथल पुथल को शांत करती है। आप सबके जीवन में कोई न कोई ऐसी जगह अवश्य होगी जो आपको संसार से एक क्षण को ही सही मुक्त करता हो। प्रसिद्ध साहित्यकार शरतचंद्र की जीवनी में मैंने पढ़ा है कि गांव के पुराने महल के बगल में एक बड़ा वृक्ष था, उसकी डाल के बीच में उन्होंने एक ऐसा ही जगह बनाया था यहां वह अपना वक्त बिताना पसंद करते थे नितांत एकांत में, किंतु पुस्तकालय एकांत के लिए नहीं होता है। पुस्तकालय में आवाज भले ना हो पर चहलकदमी जरूर होती है, पुस्तक प्रेमी व स्वाध्यायी लोगों की आंखें केवल पुस्तकों पर नहीं जमीं होती है, वह वहां बैठकर महसूस कर रहा होता है पुस्तकालय की जीवंतता को।

बहरहाल मैं इस बात पर था कि पुस्तकालय का मेरे जीवन में क्या स्थान रहा है। मई-जून की तपती गर्मी में मैं पटना पहुंचा था पढ़ने के लिए, पढ़ने के लिए इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं पटना की जिंदगी जी नहीं पाया कभी। स्कूलों और कोचिंग आदि के चक्कर लगाने के बाद जब मेरा दाखिला St Karen's high school में हुआ तो जितनी जल्दी मेरे दोस्त नहीं बने थे वहां, उससे पहले मैंने लाइब्रेरी का कार्ड बनवा लिया था, पहले तो सप्ताह में एक पीरियड लाइब्रेरी के लिए होता था जो बाद में महीने में एक हो गया लेकिन उस पुस्तकालय के सबसे आखरी कोने में जहां अव्यवस्थित किताबें लाइब्रेरियन के हस्तक्षेप का इंतजार करती थी उसी डेस्क पर मेरा नियमित ठिकाना बन गया। मैंने मैम से हिचकते हुए एक दिन पूछ ही लिया कि क्या मैं लंच टाइम में आधा घंटा यहां बैठ सकता हूं? उन्होंने हामी भर दी (मैं मैम का नाम तो जान नहीं पाया किंतु उनका आभारी जीवन भर रहूंगा) और अगले दिन से मैं नियमित रूप से लंच होते ही उस डेस्क पर तरह-तरह की किताबों के पन्ने पलटने लगा। मुझे याद है कि मैंने गांधीजी की आत्मकथा- "my experiments with truth" के कुछ पन्ने पढ़ना शुरू किया और उसके बाद अलजेब्रा की किताब के कुछ प्रश्न हर रोज बनाना शुरू किया। जब भी यह सब करने का मन नहीं करता तो कहानियों और लोक कथाओं की किताबें पढ़ता था। कुछ महीनों बाद मैं क्लास से छुट्टी होने के बाद भी लाइब्रेरी में जाने लगा करीब 1 घंटा के लिए हर रोज। कभी इस पुस्तक को तो कभी उस पुस्तक को पढ़ने की कोशिश करता, कभी-कभी एक ही पुस्तक को दो-तीन सप्ताह तक हर रोज 15-20 मिनट पढ़ता और यह सिलसिला जनवरी 2015 तक चलता रहा जब मैंने स्कूल छोड़ा। St Karen's से जुड़ी एक और याद है जिसने शायद मेरा पुस्तकालय के प्रति नजरिया कुछ हद तक बदल दिया। बात उस दिन की थी जिस दिन मेरी पहली मुलाकात हुई थी स्कूल के डायरेक्टर D. P. Galstaun सर से। लंच के बाद मैं किसी दूसरे स्टूडेंट के साथ किस बात पर हंसे जा रहा था, बाकी स्टूडेंट्स भी आपस में कुछ ना कुछ कर रहे थे अचानक एक वृद्ध व्यक्ति कोट-पैंट पहनकर क्लास में दाखिल हुए, उनका कद कम था इसलिए मैं ध्यान नहीं दे पाया था और लगातार हंसे जा रहा था जबकि पूरा क्लास शांत हो चुका था। दुर्भाग्य से कहूं या सौभाग्य से उन्होंने मुझे देखकर कुछ बोला जो मुझे बुरा लगा, उसके बाद उन्होंने आधे घंटे का एक जबरदस्त भाषण दिया। बाद में मुझे पता चला कि वह स्कूल के डायरेक्टर थे। उनके जाने के तुरंत बाद मैं भी निकला कि कम से कम सॉरी तो बोल दूं कि ऐसा अनजाने में हुआ है मुझसे। मैं उनके ऑफिस के बाहर जाकर खड़ा हो गया, सर झुकाकर। उन्होंने शायद कैमरा से देख लिया था मुझे किसी को भेजा अंदर आने के लिए और फिर शुरू हुआ पुस्तक प्रेम की अलग कहानी। मैं अंदर गया भी और माफी भी मांगा, यह सब एक तरह से पहली बार हो रहा था,एक कारण यह भी था कि मैं उस वक्त अंग्रेजी बोलने में कॉन्फिडेंट नहीं था और गलतियां करता था किंतु फिर भी मैंने किसी न किसी तरह अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कोई बात नहीं और बैठने को इशारा किया, कुछ बातें की और अपने बचपन की कहानी सुनाई। जाते वक्त एक किताब दी यह कह कर जब पढ़ लेना तो मुझसे मिलकर दूसरी ले जाना। उसके बाद मेरा उनसे मिलना और बातें करना एक सिलसिला शुरू हुआ। कभी लंच टाइम में तो कभी क्लास खत्म होने के बाद, यहां तक कि क्लास टाइम में भी। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पुस्तकालय कक्ष को भी मुझे दिखाया और मैं समझ पाया कि आखिर वे वैसा क्यों थे? स्कूल के एक शिक्षक से पता चला कि वें‌ हर दिन शाम को खुदा बख्श लाइब्रेरी भी पहुंचते हैं जबकि घर में भी उनका एक पुस्तकालय है, उनका गजब का पुस्तकालय प्रेम था। इस वजह से खुदा बख्श लाइब्रेरी जाने की मेरी भी इच्छा हुई, मैं वहां गया भी तुम तो लाइब्रेरी कार्ड नहीं बनवा पाया कुछ कारणों से।
Director's Message - St. Karen's High School Danapur, Patna


जब 2014 में मैं पुनाइचाक में रहने लगा था तो 1 दिन साइकिल से लौटते वक्त मुझे एक दरवाजा कुछ अजीब सा लगा। वह ना तो घर का दरवाजा था, ना ही दुकान या सरकारी कार्यालय का। मैंने अंदर झांका तो सामने एक मूर्ति लगी हुई थी और उसके नीचे उनका नाम लिखकर मेमोरियल पुस्तकालय लिखा हुआ था। मूर्ति के बाएं ओर एक कमरा बना हुआ था जिसमें ताला लगा हुआ था और दाहींने ओर टीन शेडिंग के नीचे बड़ा सा टेबल और कुछ कुर्सियां लगी हुई थी। चारों तरफ कुछ फूल के पौधे लगे थे और टेबल पर एक (शायद दो ) अखबार पड़ा हुआ था। शाम का मेरा ठिकाना बन गया वह पुस्तकालय जहां बैठकर मैं भी सोचता था दुनिया जहां की बातें, पढ़ा करता था अखबार व कुछ किताबें, सुना करता था बुजुर्गों की गपशप और बातें। मैंने उस रूम को खुलते कभी नहीं देखा और यह उत्सुकता आज भी है कि उस रूम में कितनी किताबें अपने पढ़ने वालों का इंतजार करती रह गई।

उन्हीं दिनों जब मैं बेली रोड पर साइकिल चला कर घर लौटा करता था तो रेहड़ी पर मैगजीन बेचने वालों के पास रुकना मेरा प्रिय शगल बन गया था। मैं रुक कर कम से कम 1 आर्टिकल तो पढ़ ही लिया करता था और कभी कभार अच्छा लगने पर मैगजीन खरीदा करता था। मुझे उन्होंने पढ़ने से कभी रोका नहीं और मैं कभी रुका भी नहीं। समय की कमी भी नहीं थी और किसी तरह का झंझट भी नहीं था। हां कभी कभी रात 8:00 बजे कोचिंग से निकलता था तो डेरा पहुंचने में 10:00 बज जाते थे इन सब चक्करो की वजह से। पुनाइचाक के अंदर एक पुस्तक दुकान थी छोटी सी, उस दुकान को चलाते थे एक भैया जिनका चेहरा अभी भी मेरे मन मस्तिष्क में अंकित है। अपनी छोटी बेटी को लेकर वह दुकान में बैठा करते थे, तब स्मार्टफोन का क्रेज नहीं था इसलिए वह खूब बातें किया करते थे। मैं भी बातें करने में माहिर था, हमारी दोस्ती हो गई। मैं दुकान के बाहर टेबल पर रखकर उनकी पत्रिकाएं पढ़ा करता था। मुझे मालूम था कि इस तरह कहना दुकानदारी के नियम के खिलाफ है पर यह भी जानता था कि इस तरह का कोई नियम भी नहीं है। कभी-कभी वह कुछ काम से निकल जाते थे तो मैं ही देख लिया करता था उस दुकान को। शाम 5:00 बजे से करीब 6:00 बजे तक हर दिन वहां जाना मेरा रुटीन में शामिल हो चुका था। यह सब करीब 6 महीने तक चलता रहा लेकिन परीक्षा के बाद एक दिन जब मैं वहां गया तो पता चला की दुकान बंद हो गई है और वह वहां नहीं मिले।
रजौली में भी एक पुस्तक दुकान पर मेरा काफी समय गुजरा था बचपन में फर्क केवल इतना था कि रजौली में गिन कर एक-दो मैगजीन ही आता था उस दुकान में। रजौली की बात करूं तो याद आता है 2009 से लेकर 2013 तक की कुछ बातें। जैसे सरस्वती विद्या मंदिर में एक कमरा जिस पर पुस्तकालय लिखा हुआ था, उसका बंद रहना हमेशा ही मुझे खटकता था। मैंने संतोष आचार्य जी से बात किया था और एक दिन उन्होंने मुझे उस रूम की चाभी दी। अंदर एक अजीब सी खुशबू थी पर अंधेरा था और सीलन था। एक अलमारी में कुछ किताबें थी, मैंने उन्हें पलट कर देखा और कई दिनों तक मैं रजिस्टर पर किताबों के नाम आदि चढ़ाना शुरू किया। लगभग उसी वक्त मेरे घर में पड़ी करीब 200 किताबें मां के कहने पर पुस्तकालय में दान कर दिया ज्यादातर स्कूल की किताबें थी उनमें। अगले कुछ महीनों में मुझे स्कूल का छात्र लाइब्रेरियन बना दिया गया और मैंने उत्साह पूर्वक कोशिश किया की पुस्तकालय सुचारू रूप से चालू हो जाए। बहुत से छात्र किताबें घर ले जाने भी लगे थे। यहां भी एक ही दिक्कत थी की किताबे बहुत ही कम थी। खैर यह सब करीब 2012-13 तक चलता रहा।
2012 13 में रजौली इंटर विद्यालय में मैं जाने लगा था, हालांकि पढ़ाई लिखाई नहीं होती थी एक आध दिन को छोड़कर फिर भी मैं जाता था क्योंकि मुझे यहां का विज्ञान प्रयोगशाला वास्तव में विज्ञान प्रयोगशाला मालूम पड़ता था। विज्ञान प्रयोगशाला में दर्जनों बार गया होउंगा मैं एक प्रोजेक्ट के चक्कर में। किंतु 1 दिन ही सौभाग्य प्राप्त हुआ लाइब्रेरी में जाने का, बड़ा साबुन और कम से कम 10 अलमारियां किताबों से खचाखच भरी हुई। 10:15 मिनट में ही रूम लॉक हो गया और फिर कभी नहीं खुला। दुर्भाग्य स्कूल का था या फिर हमारा आज तक समझ में नहीं आया। हां यह बात जेहन में बैठ गई कि इस तरह के पुस्तकालय जिला में कम से कम तो 20 से ऊपर ही होने पर कोई काम का नहीं। समाज के लिए तो बिल्कुल ही बंद, कम से कम छात्र छात्राओं के लिए तो खुलता। खैर आज तक कोई सकारात्मक खबर नहीं आई पुस्तकालयों के बारे में। सरकारी स्कूलों में किताबे तन्हा हो कर रही है और निजी विद्यालयों के पास पैसा कमाने से फुर्सत ही नहीं है। समाज के नेताओं से तो अपेक्षा ही करना व्यर्थ है। स्कूली जीवन में ही सरकार की ओर से एक एक लाइब्रेरी वैन में भी गया हूं पर वह तो 1 सप्ताह में वापस चली गई थी और फिर मुलाकात हुआ नहीं।

कोलकाता में जब रहता था तो उस वक्त पुस्तकों से इतना लगाव नहीं था जितना होमवर्क के नाते पढ़ना पड़ता उतना ही पढ़ता था। किंतु याद आता है कोलकाता का वह पार्कस्ट्रीट जो मैं जीवन में मात्र एक बार ही जा पाया था पापा के साथ। चारों और किताबें पसरी हुई, वह दृश्य आज भी जीवंत हो उठता है। पटना में रहने लगा था तो साइकिल से महीने में एक बार गांधी मैदान के बगल में पुरानी किताबों के अड्डे पर जरूर पहुंचता था। तरह तरह की किताबें, फटी- पुरानी, व्यर्थ- अनमोल सब वहां रहता था। मैं उन में खो जाता था और मोलभाव करके कुछ किताबें शाम को ले आया करता था ज्यादातर गणित और भौतिकी की क्योंकि उपन्यासों से मेरा वास्ता उस वक्त नहीं हुआ था। मैं गोल घर के बगल से गुजरता था पर आज तक नहीं जा पाया, गांधी मैदान इस साल फरवरी में पहली बार गया जब पटना गया हुआ था ऐसे ही किसी कारण से।
अखबारों में ठंड के दिनों में अक्सर पढ़ा करता था कि पुस्तक मेला लगा हुआ है पटना या गया में तब भी जा नहीं पाया कभी। पहली बार पुस्तक मेला गया मैं दिल्ली के प्रगति मैदान में। पूरा दिन पुस्तकों के बीच गुजर गया और खरीदा मात्र एक पुस्तक क्योंकि पैसे थे नहीं उस वक्त। खैर दिल्ली में दरियागंज की पुरानी किताबों का अड्डा रहा है। छोटे भाई के साथ कई बार गया मैं वहां। दरियागंज से किलो के भाव किताबें लाना कैसे भूल पाऊंगा मैं?
ऐसे ही यादों से बना हुआ है जीवन लेकिन पुष्पकालय के साथ एक अजीब सा बंधन महसूस करता हूं मैं और मैं चाहता हूं कि दुनिया का हर इंसान इस बंधन को महसूस कर पाए।



इन सब कारणों से मैंने भी सोचना शुरू कर दिया था कि मैं भी अपने गांव में एक पुस्तकालय जरूर बनते देखुंगा। कभी यह नहीं सोचा था कि मैं स्वयं ऐसा करूंगा। दिल्ली से वापस लौटने के बाद 2019 में मैं किताबे घर पर मंगा कर पढ़ने लगा पर इसमें मुझे यह बात हमेशा सालती रही कि जिनको मेरे जैसा सौभाग्य नहीं है वह कैसे पढ़ेंगे इसलिए मैं गांव के और आसपास के गांव के समझदार लोगों से इस संबंध में बात करने की कोशिश करने लगा कि क्या ऐसा संभव है कि एक सार्वजनिक पुस्तकालय खोला जाए यह सब एक डेढ़ साल चला। दोस्तों से बात तो करीब चार-पांच सालों से हो रही थी लेकिन इस साल फरवरी में एक दिन मैंने खुद ही फर्स्ट स्टेप लिया और मैंने व्हाट्सएप पर तथा फेसबुक पर एक मैसेज डाला कि मैं एक ऐसा प्रयास करने जा रहा हूं जिसमें आप सब की भागीदारी जरूरी है करीब 20 दोस्तों ने सहयोग के लिए हां कहा। किसी ने ₹50 दिए तो किसी ने ₹100 और बहुतों ने अपनी पुरानी पुस्तकें दी। पापा को जब यह बात मालूम चला तो उन्होंने दो कमरों का इंतजाम कर दिया और फिर क्या था अपना पुस्तकालय का ठिकाना मिल गया।
उसके बाद दो मीटिंग हुआ जिसमें अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा हुई कैसे टेबल बनना है कैसे किताबे लाना है इत्यादि। मैं लगातार 10 दिनों तक अलग-अलग लोगों से मिलने की कोशिश करता रहा और उसके बाद लॉक डाउन हो गया तब तक मेरे पास 500 किताबें जमा हो चुकी थी और ₹17000 आ चुके थे। लॉकडाउन में Pratham Books एक डोनेशन लिंक एक्टिवेट किया जिसमें ₹10000 डोनेशन मिले उसका ईमेल हाल में ही प्राप्त हुआ है जिससे मुझे करीब 160 बच्चों की किताबें 10- 12 दिनों में प्राप्त होगी। बिहार में अभी भी लॉकडाउन है परंतु फिर भी मैं प्रतिदिन वहां पहुंचता हूं। 

उद्देश्य केवल इतना है की गांव के आसपास के बच्चे व बुजुर्ग दुनिया जहान की बातें करने के लिए एक सकारात्मक माहौल तैयार करें पुस्तकालय में और अपने-अपने रुचि की हर किताब पढ़ पाए।

आपका 
प्रशांत 



Monday, July 13, 2020

प्रथम परिचय की तलाश







जिंदगी में पता नहीं कब आस्था से परिचय हुआ ? किस पड़ाव पर मैंने भगवान के अस्तित्व पर विश्वास किया ? न जाने कैसे मैंने पहली बार अपने मुख से हनुमान जी का नाम लिया था या दुर्गा माँ को पुकारा था ? बचपना मेरा कब का गुजर चूका है पर मुझे ध्यान नहीं कि कब पहली बार मैंने देवी-देवताओं के मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ प्रणाम किया था ? कबसे मैंने अपनी मन की आँखों में शिवलिंग को भोला बाबा का रूप मानकर बैठाया हुआ है? मुझे याद नहीं कि कब मैंने कर्मकांड व पूजा अर्चना की एक खास विधि को अपना लिया ? कब मैंने भगवान् सूर्य को पहला अर्घ्य दिया था या कब मैंने पहली बार कपूर-अगरबत्ती जलाई थी ?




मंदिर में पहला प्रवेश तो शायद ही मुझे ध्यान हो क्योंकि होश होने से पूर्व सैकड़ों बार मैं अपना सर झुका आया होगा देवी माँ के सामने। हाँ, फिर भी जब भी याद करने की कोशिश करता हूँ तो गांव का सती-स्थान / देवी मंदिर का जीवंत चित्र बन जाता है जहाँ अंदर में मामा- गुरुआईन जी के साथ पूजा कर रही है और बाहर बौंडरीके किनारे कनैलके फूल के निचे मैं अन्य बच्चों के साथ कुछ खेल-कूद में व्यस्त था। याद आता है माँ का ललाट पर काला टिका लगाना और दोनों हाथ पकड़कर मुझे और मेरे भाई को देवी माँ के सामने झुकने के लिए सिखाना। मंदिर कितना जीवंत लगता है आज भी।  मंदिर प्रांगण में लगा पीपल का पेड़ भी हिलता नजर आ जाता है और कुआँ से पानी का कल कल आवाज़ सुनाई पड़ता है। उस वक़्त से आज तक न जाने कितने ही मंदिर कितने ही बार गया हूँ। कुछ की तो बिलकुल याद नहीं पर बहुत की यादें बिलकुल ऐसे ही तरोताज़ा है। लगभग जिस घर में रहा हूँ वहां एक भीत्तर  ( रूम को हमलोग भीत्तर  कहते हैं ) पूजा भीत्तर  के रूप में रहता ही था, भेलवाटांड़ में तो दो-दो भीत्तर था जिसे हम 'सीरा भीत्तर' कहते हैं। उस भीत्तर में लाल-लाल टीका मिट्टी के दीवालों पर और न जाने कितने ही देवी-देवताओं की चित्र टंगे हुए थे।
खैर मैं इस बात पर था कि आखिर पहली बार किसने परिचय कराया उस असीम से। मुझे पूरी तरह से  नहीं पर हल्का-फुल्का याद आता है कि पहली बार गुरूजी ने स्लेट पर अंगुली पकड़कर "क" लिखवाया था, उससे पहले "राम" लिखवाया था  उन्होंने। वैसे माँ ने उनसे पहले ' क ख ग ' लिखना शुरू कर दिया था, शायद गिनती भी। जब मैं एक हाथ में स्लेट पेल्सिट और दूसरे हाथ में बोरा लेकर मंदिर के सामने स्कूल जाने लगा था तो शायद हाथ जोड़कर प्रार्थना भी करना शुरू कर दिया था। किनसे प्रार्थना किया क्यों किया था, ये तो मालूम नहीं।  लगभग उसी वक़्त बावा ने मुझे मदरसा भी भिजवाया था। मौलवी साहेब  'अली बे ते ...' सीखा गए , उसके बाद न मैं कभी कुछ पढ़ पाया उर्दू में। लेकिन मदरसे के बगल में में आ रहे लोगों को नमाज अता करते जरूर देखा मैंने। भेलवाटांड़ में ही पहली बार मुस्लिम युवकों को मयूर पंख लिए पैक लगाते देखा और कर्बला में शकरपाला ( घर में बनने वाली एक प्रकार की मिठाई ) खाया।  उस शकरपाला का स्वाद आज भी मिठाइयों के मिठास को मात देता है।  घर के आँगन में दर्जनों भगत - भगतिनियों को भरते देखा हैं मैंने बचपन में, भगवान् के नए रंग-रूपों से शायद परिचय तब हो ही रहा था। एक दिन मेरे हाथ में दूध सा सफ़ेद और कागज सा पतला चूड़ा आया जिसे खाया मैंने, सफ़ेद मीठी गोलियों के साथ। पेड़े का एक टुकड़ा तो अभी भी मेरे स्वाद तंतुओं में समाया जान पड़ता हैं। पहले मामा ने दोनों भाइयों के गले में माला पहना दिया था उस रोज़। बाद में पता चला कि वह बाबा धाम का प्रसाद था जिसका स्वाद अभी भी स्वाद तंतुओं ने सहजेकर रखा है। इसी तरह अलग अलग दिशाओं से अनेक प्रसाद मैं ग्रहण करता रहा यह जाने बगैर कि ये सबसे पहले उस अनंत को भोग लगाया गया जिसे मैं आजतक नहीं जान पाया। अनुमानतः यह सब २००२-०३ के पहले की बातें हैं।


उसी घर में देवता के लिए खस्सी कटते हुए देखा है मैंने, उसका लाल रक्त को देवता को चढ़ाकर मुझे भी दिया गया था, मैंने ग्रहण करने से इंकार किया भी नहीं जब तक कि प्लास्टिक में नहीं आने लगा और नाम जान नहीं लिया कि खस्सी अब मीट बन चूका है।
कितने ही कर्मकांडों और अनुभवों से गुजर चूका था इस बात से अनजान की जिनके लिए ये सब किया गया उसे अब तक कोई जान ही नहीं सका है। वह असंख्य रूपों में, अनगिनत तस्वीरों में न जाने कौन कौन सा जगह बैठा हुआ है। स्कूल जाने लगा तो शायद नए विचारों ने मेरे मस्तिष्क में उथल पुथल की। ध्यान हुआ कि गणेश भगवन की पूजा एक खास दिन ही होती है जो साल में सिर्फ एक बार आता है या फिर सरस्वती मैया की मूर्ति भी एक ही बार आती साल में। लेकिन उत्सवों से परिचय हुआ तो मूल बात को छोड़कर बाकि सारी बातें जान गया। कोलकता में था तो रथयात्रा भी देखा मैंने और कहनियाँ भी सुनी, दुर्गोत्सव का वृहत रूप भी देखा। लेकिन सारा कथा कहानी जानकर भी मैं बहुत सी बातों से अनजान था और आज भी हूँ। छठ पूजा में नदी में आस्था से परिचय हुआ मेरा पर महात्मय जाने ज्यादा बरस न हुआ।
इतना लिखने के बाद भी मुझे यह याद नहीं आया कि कब मैं हनुमान-चालीसा पढ़ना शुरू किया और किस कारन से ? कब मैंने काली माँ की फोटू के सामने माफ़ी मांगना शुरू किया ? कब मैं पेड़-पौधों-प्रकृति के कण-कण में उसको देखने की कोशिश करने लगा जिसे किसी ने नहीं देखा है।
शायद बारह- तरह वर्ष का रहा होऊंगा तब भगवान् के नए आयामों से परिचय हुआ होगा कि वो निराकार,निर्गुण और सर्वव्यापी है और शायद उसी उम्र में मैं नास्तिक भी रहा था जब कई-कई महीनो तक उनके सामने मेरे माता पिता और अन्य लोग सर झुकाते थे।  फिर भी अभी मैं नास्तिकता और आस्तिकता से ऊपर उठ चूका हूँ पर ईश्वर को समझ नहीं पाया।  माँ कहती है वो सबके अंदर है जैसे कस्तूरी मृग के अंदर रहता है और वो पागल पुरे जंगल में ढूंढता रहता है।
                               कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूंढे वन माहि 
                               ऐसे घाट घाट राम है दुनिया जानत नहीं।  
  किन्तु मेरा मन कई वर्षों से यह मानने को तैयार ही नहीं कि इतनी गन्दी हरकतें मैं करता हूँ तो वे मुझे अवश्य ही रोक लेते अगर मेरे अंदर होते।  मैं कोई प्रह्लाद या ध्रुव तो नहीं। .अब जब कुछ किताबें पढ़ने लगा हूँ और बहुत से साधु संतों की बातें सुनने लगा हूँ तो मन और आत्मा-परमात्मा का कांसेप्ट समझने का प्रयास कर रहा हूँ उसे जो समझ से परें  हैं पर सब व्यर्थ।
इसलिए फिर से मैं पूछने की कोशिश कर रहा हूँ कि आखिर वो कौन सा दिन था जब पहली बार मेरा परिचय इस संसार में उनसे हुआ था ? 

प्रशांत   

Wednesday, July 01, 2020

छोटा सुंदर घर हो अपना


चित्र ट्विटर से 

किसकी चाहत नहीं होगी कि वह ऐसे घर में रहे ? लेकिन आदमी की उम्र बीत जाती है पर यह सपना सच नहीं होता है। (ध्यान दें कि कहीं ना कहीं कोई अवश्य रहता है ऐसे घरों में पर वह विश्व जनसंख्या का 1% भी नहीं होगा) फिर भी आदमी सपने सजाता है और हर एक दिन ऐसे गुजारता है यह मानकर कि जल्द ही वह अपने परिवार के साथ अपने सपनों के महल में रहने जाएगा। जिसके आगे लाल चटक रंगों वाला rhododendron (एक प्रकार का फूल ऊपर के चित्र से संदर्भ ) लगा हो या सुर्ख पीले रंगो वाला अमलतास का पेड़ लगा हो जिस पर रंग बिरंगे पंछी कलरव करें, गिलहरियां दौड़ भाग करें। घर के एक किनारे एक बेहतरीन चार चकिया गाड़ी पार्क हो और उसी गैराज में बाइक व साइकिल भी हो। वैसे यह आधुनिक जीवन का सच है पर फिर अगर मोटे तौर पर भी कहूं तो अब हर गांव में कम से कम एक-चौथाई घरों में बाइक तो लगा रहता ही है। साइकिल तो हर दूसरे घर में उपलब्ध है यह बात अलग है कि प्रयोग में काफी कम है। कुछ घरों में चार चकिया भी जगह ले चुका है। खैर फिर भी यह बात उस सपने से मेल नहीं खाती है क्योंकि जिनके पास यह है वह भी सपने देख रहे हैं "छोटा सुंदर घर हो अपना"। घर के पीछे थोड़ा सा खाली जगह हो जिसमें वह कुछ बागवानी कर सके या शाम को क्वालिटी टाइम बिता सकें। घर का इंटीरियर कैसा होना है इस पर भी आदमी सोचता रहता है। किचन कैसा होगा, मास्टर बैडरूम कैसा होगा ? छत पर डिजाइन कैसा होगा, डाइनिंग टेबल कहां लगा होगा आदि आदि। ठंडे व गर्म पानी की सुविधा होनी चाहिए। बिजली से चलने वाले सारे उपकरण होने चाहिए। कुल मिलाकर वर्ल्ड क्लास सुख सुविधाओं से लैस घर का सपना आदमी सजाता है। आदमी इस तरह की घर की कल्पना करने के साथ ही कुत्ता या बिल्ली पालने का भी सपना देखता है। pet पालना बुरा नहीं है और ना ही उन्हें पालने का ख्वाब सजाना परंतु। यह क्या बात हुई कि अभी नहीं पाल सकते हैं जब वह सपनों का घर बनेगा या खरीदा जाएगा तब ही पालेंगे? खैर मानव मस्तिष्क और अचेतन मन में कल्पना ओं का भंडार है और अगर ऐसा है ही तो हम क्या करें?
अगर सपने का ही बात करना है तो कभी-कभी घर के साथ पड़ोसियों तक के सपने आदमी देख लेता है। संभव हो यह सब कहानियां या फिल्मों से भी प्रभावित हो, आधुनिक समय में प्रचार यानी एडवर्टाइजमेंट की अलग ही महिमा है।
बहरहाल हम इस बात पर थे कि आज के दौर में हर किसी का सपना होता है कि वह ऐसा घर खरीद सके, रहना ज्यादातर का सपना नहीं होता है पर जो भी हो यही से शुरू होता है पैसे, संसाधन और लालच का कुचक्र। आदमी भले कह दे कि वह व्यापार कर रहा है, मेहनत कर रहा है या कुछ और। किंतु मन मस्तिष्क पर वह सुंदर घर अंकित हो चुका होता है। आदमी भी कितना चालाक है अपने सपने पूरे करने हेतु दूसरे आदमी को भी फसा लेता है।दूसरा आदमी अपने सपने पूरे करने हेतु इतना उत्तेजित रहता है कि वह यह भूल जाता है कि वह सपने के बदले गहरे चक्र में फसने वाला है। लोन, उधार या कर्ज इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। यहां पर जहां तक मैं समझ सकता हूं तो लिखूंगा वाक्य "हर चमकती चीज सोना नहीं होता है" सत्य लगता है। आदमी को सपने का घर सुकून की जिंदगी बिताने के लिए चाहिए, वह उसकी चमक धमक में ऐसा खोता है कि वह भूल जाता है कि इस चमक-दमक के पीछे काफी गहरा अंधेरा है। लेकिन आदमी यह जानकर भी उसके पीछे भागता है। आखिर क्यों?
क्योंकि आशा की एक किरण हमेशा से ही निराशा के काले बादलों को हराता आया है।
क्योंकि आदमी को लगता है अगर मैं सपना देख सकता हूं तो सच भी कर सकता हूं।
क्योंकि आदमी को जीवन जीने का सलीका नहीं मालूम।

वैसे आपको क्या लगता है?

आपका प्रशांत 🤔
मेरा घर सामने से 

Saturday, June 27, 2020

साथ चलने की चाह

" मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!
"

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह पंक्तियां कुछ हद तक ही सही मेरे जीवन को परिभाषित करतीं हैं। मैं ऐसा इसलिए कह सकता हूँ क्यूंकि मैं जीवन के घटनाओं व उपक्रमों में सबके साथ होने पर भी मैं अकेला रहा। हां, यह पूरी तरह से सच भी नहीं है पर इसको झुठलाया भी नहीं जा सकता है। एक मनुष्य के रूप में मुझे समाज में ही रहना पड़ा है और समाज में रिश्ते-नातों का जाल बिछा होने के बावजूद मैं उस जाल में अधिकतर समय कैद रहने के बावजूद उससे अछूता रहा। हो सकता है कि मेरा यह कथन आपके भावनाओं से मेल न खाये, आप सोचने के लिए स्वतंत्र हैं कि कैसे समुद्र का एक बून्द यह कह रहा है कि वो समुद्र से अलग रहा है। समुद्र में मिला होने के बाद भी उसे लग रहा है कि समुद्र से वह अलग है। लेकिन ताजुब्ब की बात यह है कि वह अकेला रहना भी नहीं चाह रहा है, उसका अकाक्षां है कि वह समुद्र हो जाये परेशानी बस इतनी है वह किसी से कह नहीं पा रहा है। मैं व्यक्त नहीं कर पाया इस बात को कभी।

" यह जानते हुए भी
  कि आगे बढना
  निरंतर कुछ खोते जाना
  और अकेले होते जाना है
  मैं यहाँ तक आ गया हूँ
"

बहरहाल मैं आगे बढ़ता रहा, जीवन के नए आयामों को जीने की कोशिश करता रहा। भविष्य के प्रति आशान्वित होकर प्रत्येक सुबह को शाम करता रहा मैं। लेकिन सुबह और शाम के बीच ताप्ती दुपहरी को झेलना पड़ा। मैंने उसे कैसे झेला यह भी व्यक्त नहीं कर सकता पर उस तपती दुपहरी ने बहुत कुछ छोड़ने पर मजबूर किया। संभव है मेरा मन भी रहा हो छोड़ कर आगे बढ़ जाने को पर यह बात उतना ही सत्य है कि यह सब वर्षों के अनुभवों के कारण ही संभव हो पाया। केवल एक तपती दुपहरी में वो क्षमता नहीं कि वह मुझे कुछ छोड़ने पर मजबूर कर देता परन्तु यह भी उतना ही सच है कि जब मैंने कुछ छोड़ा था वह एक उमसभरी तपती दुपहरी ही थी। जीवन में आगे बढ़ता रहा हर बीतते पल के साथ कुछ छूटता गया मुझसे, कुछ खोता गया मैं। जैसा कवि ने कहा मैं जान रहा था और महसूस कर पा रहा था। बहुत कुछ खोने के बाद भी अनवरत चलना मानव की नियति रही है। थकन , रुकावटें , बंधन आदि तो बस पड़ाव मात्र है।  चलना ही जीवन है पर कोई साथ चले तो यात्रा आसान लगती है।  यह साथ माता-पिता-भाई-बहन का भी हो सकता है, गुरु का भी हो सकता है या स्नेहिल मित्रों का भी हो सकता है  कल्पना में तैरते अनंत पात्रों में से कोई एक भी साथ चल सकता है।  यह अपने ऊपर है कि हम कैसे और किसे साथ लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं।  

आपका

प्रशांत




कोई मेरे साथ चले / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना



मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!
अक्सर दरख्तों के लिये
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खडा रहा
वे अपनी हरीयाली
अपने फूल फूल पर इतराते
अपनी चिडियों में उलझे रहे
मैं आगे बढ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जडों में नहीं बदल पाया
यह जानते हुए भी
कि आगे बढना
निरंतर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख्तों की लंबी छायाएं
मुझे घेरे हुए हैं......
किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम
मुझे
और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
चाहा जरुर!


Monday, June 22, 2020

बरसात इन दिनों




बरसात शुरू हो गई है। शाम ढलते ही मेढकों का टर्र-टर्र शुरू हो जाता है और जब तक आसमान से पानी ना बरसे यह टर्र-टर्र बंद नहीं होता है। बारीश भी होती है इनके कहने पर और फिर दो-चार मिनट में रुक जाती है। आसमान अचानक से साफ हो जाता है, बादलों की अठखेलियां शुरू हो जाती है। इसी दौरान अगर गलती से सूरज निकला तो माँ तुरंत भीगे कपड़ों को बाहर पसार देती है और फिर अगले ही पल बारिश फिर शुरू। कपड़ों को भीगने से बचाने का प्रयास करती है तब तक वह खुद भीग जाती है। माँ उतने समय में पता नहीं ईश्वर को कितनी बार कोस चुकी होती है और मुझे व मेरे भाई को आलसी कह चुकी होती है। 'हम कर भी क्या सकते हैं' ऐसा चेहरा बनाते हैं तब तक बारिश फिर थम जाती है। यह तो अब हर दिन की कहानी है। सबसे अच्छी बात यह है कि अब घेवारी में पाइप गिरा कर या चापाकल चलाकर पौधों को पानी नहीं देना पड़ता है। आलस नाम का यह गुण पता नहीं कितने वाक्यों के अर्थ बदल देगा।
खैर बारिश के मौसम में कीट-पतंगे खूब उड़ते हैं और इनके चक्कर में छिपकलियों के कई बच्चे दीवाल छोड़कर जमीन पर टहलते हैं। मेंढक तो घर में घुसे पड़े हैं और इन सब से हम परेशान हैं। पिछले साल तो मेंढक के पीछे सांप घुस गया था घर में। रात को जब सोता हूं तो कान में तरह-तरह की आवाजें गूंजती है। झिंगुर का बोलना अब शायद मेरा मन स्वीकार कर चुका है पर बचपन में तो यह पता करने में काफी समय जाता था कि आखिर झिंगुर इतना बोल क्यों रहा है/ बोल रहा है तो किधर से और किसको बोल रहा है? पर अब फर्क नहीं पड़ता है। रात में तरह तरह की आवाज़ों के बीच उल्लू भी बोलता है। अगल-बगल के पेड़ पौधों पर तरह-तरह की पंक्षियां आ रहे हैं। इधर-उधर फुदक फुदक कर फिर वापस चले जाते हैं। दो दिन पहले कोयल को भी देखा है मैंने, सात भाई तो धमाचौकड़ी मचाते ही रहते हैं । कबूतरों को तो बस गुटर गू करना है, वैसे आज सुबह मैना के दो बच्चों को देखा। इन दिनों फूलों में एक अजीब तरह की रंगत दिखती है जैसे मानो की उसमें खुशियां भर गयी हो।

घर से पहाड़ भी दिख रहा है हर दूसरे पल एक नए रंग में रंगा हुआ। पहाड़ के आसपास बादलों का समूह मानों नाच रहा हो, ऐसा दृश्य देखकर मन को असीम शांति मिलती है किन्तु मन शांत कहां होता है, उसे तो और चाहिए। पहाड़ के आगे ताड़ के पेड़ नजर आते हैं। एक वक्त तो ऐसा लगा मानो कि वे सभी पेड़ कहीं जाने की तैयारी कर रहे हो बस उनको रास्ता नहीं मालूम है। अगल बगल में छप्पर के घर हैं जो बरसात में सबसे ज्यादा सुंदर हो जाते हैं, खप्पर से पानी को चूते देखना मुझे बचपन की बारिश याद दिला जाती है। गलियों में बारिश से बचकर लोगों को आते जाते देखना कितना सुखद लगता है, ऐसे में छतरियों की याद आना लाज़मी है। छातों से बहुत सी यादें बनी है पर बिना छाता के भी बरसात के मौसम गुजारे हैं हमने। बारिश में भीगने का अलग ही आनंद है। मैंने बारिश में जानबूझकर भीगने का प्रयास शायद एक-दो बार ही किया हो पर नहाया जरूर है।
अनजाने में या गलती से बारिश में कई बार भी चुका हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि बारिश में सबसे बुरा क्या लगता है। हवाई चप्पल पहनकर सड़क पर चलना। चप-चप से पूरा पैंट गंदा हो जाता है।


खेतों में चलना बारिश में सबसे अच्छा अनुभव हो सकता है पर मैं इस मामले में ज्यादा खुश किस्मत नहीं रहा हूं। लेकिन इस मौसम में बहुत कुछ है जिसका अनुभव यादों के रूप में सहेजा जा सकता है। बरसात सबके लिए एक समान नहीं होती है तो जाहिर है अनुभव और यादें भी एक समान नहीं होगी। किसी को चाय-पकौड़े मिल रहे होंगे तो बरसात अच्छी लग रही होगी। किसी को आम या जामुन खाने को मिल रहे होंगे तो उन्हें बरसात अच्छी लग रही होगी या फिर किसी को घर बैठकर पढ़ने का समय मिल रहा होगा तो नहीं बरसात अच्छी लग रही होगी पर सच कहता हूं बहुतों को यह सब अनुभव ना होने पर भी बरसात अच्छी लग रही है। बरसात समाज को समझने का अवसर भी देता है और थोड़ा ठहर कर सोचने के लिए आमंत्रित करता है शायद इसीलिए बहुत से कवियों, लेखकों और चित्रकारों को बरसात प्रिय है।
चलो हम भी थोड़ा रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं और महसूस करते हैं बरसात को। इसके नेमतों को। बारिश की बूंदों को और सजती-सवरती धरती को। याद करते हैं बचपन को, स्कूल के दिनों को और बरसात से जुड़े बातों को। भूल जाते हैं तपती गर्मी सी बातों को और माफ करते हैं अपने आप को।
प्रशांत



Monday, May 18, 2020

रिश्तों के बीच हिंसा : थप्पड़ और अम्बिलि से सीख

कल कुछ मित्रों के साथ ऑनलाइन वार्तालाप हो रहा था। कुछ मित्रों से मैं पहले कभी मिला भी नहीं था और कुछ से आज पहली बार बात कर पा रहा था। हम आपस में अपने मन की बात साझा कर रहे थे। उसी क्रम में करनाल से शिवानी ने एक कहानी सुनाई, जिसे सुनकर मुझे एहसास हुआ कि वह कहानी नहीं समाज का सच है। उस कहानी का नाम है बबलू की भाभी।
कहानी में बबलू 8-9 साल का बालक है, वह अपने भैया और भाभी के साथ किसी गांव में रहता है। उसके भैया कमाते हैं और दारू पीते हैं। वह अक्सर घर में पी कर आता है और बबलू की भाभी को मारता है। एक रात जब वह आया तो उसने पूछा आज खाने में क्या बना है? बबलू की भाभी ने कहा- वही जो रोज बनता है,रोटी और सब्जी। इतने में वह गुस्सा हो गया और अपनी पत्नी पर हाथ उठा देता है, आसपास जो मिलता है उससे मारने लगता है। तभी बबलू बीच में आ जाता है और भैया से कहता है आप भाभी को मत मारिए। उसके भैया उसे धक्का देते हैं और वह दूर जाकर गिरता है। बबलू के भैया बाहर चले जाते हैं। अगले दिन जब अपने स्कूल से लौटता है तो उसकी भाभी उससे पूछती है कि तुम कल भैया को रोकने क्यों आए? बबलू ने जवाब दिया - स्कूल में टीचर ने बताया कि हर आदमी स्वतंत्र है और हमें हर अच्छे आदमी से प्रेम करना चाहिए, उनका ख्याल रखना चाहिए। मुसीबत में उनकी मदद करनी चाहिए। भाभी आप अच्छी हैं ना, मेरा ख्याल रखती हैं मेरे लिए खाना बनाती है तो मैं आपकी मुसीबत में क्यों ना साथ दूं? भाभी ने फिर पूछा कि सब तो तुम्हारे भैया जैसे हो जाते हैं बड़े होकर? क्या जब तुम बड़े हो गए तो तुम ऐसा नहीं करोगे? बबलू ने जवाब दिया कि नहीं भाभी मैं ऐसा नहीं बनूंगा। मैं सबके साथ प्यार से बात करूंगा, मारपीट नहीं करूंगा।
तो यहीं पर कहानी खत्म होती है। पर शिवानी ने कहा कि उसे यह कहानी सुनकर रोना आ गया था। बबलू की उम्र ज्यादा नहीं थी पर उसने कितना सहा और कैसी हिम्मत दिखाई। वास्तव में हम सब यह कहानी सुन हैरान थे, पर सोचने वाली बात यह है कि बबलू का बालमन जो स्कूल में सिखाई अच्छी बातों को अपने जीवन में उतारने को तैयार था, क्या उसके जीवन में रोज घट रही इस घरेलू हिंसा से प्रभावित नहीं होता होगा?
इसका उत्तर है बबलू का बाल मन जरूर प्रभावित होता होगा, भले ही वह अच्छी बातों को सीखने का प्रयास करें एवं अच्छा व्यवहार करें। किंतु उसके बचपन के दिनों में यह सब उसे जिंदगी भर याद रहने वाला है।
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चित्र www.wikipedia.com से साभार

मैंने कुछ दिनों पहले दो फिल्में देखी थी। एक फिल्म थी थप्पड़ जो हाल ही में रीलिज हुई है जिसमें तापसी ने एक गृहणी अमृता का अभीनय किया है। दूसरी थी मलयालम फिल्म अंबिली।थप्पड़ में कुछ दृश्य ऐसे थे जिसने मुझे बबलू की कहानी से जुड़ने में मदद किया। जैसे उसमें एक नौकरानी थी जिसे उसका पति लगभग हर दिन पीटता था और यह दृश्य भारत के हर गांव का दृश्य है। लगभग 90% घरों में औरतों पर इस तरह का अत्याचार किया जाता है।हां, यह भी सच है कि अधिकतर लोग अनपढ़ होते हैं और महिलाएं सहती जाती है कई कारणों से। दूसरा दृश्य है जब अमृता पर उसका पति हाथ उठा देता है। वह अनजाने में किया काम लगता है और परिवार तथा समाज के लोग अमृता से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह इस घटना को भूल जाए किंतु वह नहीं मानती है। वह कहती है कि 'हां, एक थप्पड़ ही पर वह नहीं मार सकता'। मुझे लगता है कि पति पत्नी के बीच जब हर बात आपस में बात करके डिसाइड होता है तो पत्नी को पीटना केवल पति कैसे डिसाइड कर सकता है? हां गुस्सा आना लाजमी है क्योंकि यह मानव स्वभाव है पर जब प्रेम में consent जरूरी है तो गुस्सा में क्यों नहीं? बढ़ते हैं अगले दृश्य की ओर क्योंकि ऊपर का प्रश्न कोई हल नहीं दे सकता है। एक दृश्य में विक्रम (अमृता का पति) का सीनियर उसे बुलाकर कहता है कि अमृता पर हाथ उठाना तुम्हारी गलती थी। क्या तुम मुझ पर हाथ उठाते या जिसने तुम्हारी प्रमोशन रोकी थी जिससे तुम पूरी तरह से गुस्सा थे, उस पर हाथ उठाते उस वक्त?
यह सही पूछा उसने क्योंकि यह संभव नहीं दिखता है कि वह अपने सीनियर पर हाथ उठाता।शायद इतना पढ़ा-लिखा होने के बाद भी उसके मन में यह बात बैठी थी कि औरत तो कमजोर होती है। वह जानकर हाथ उठाता तो उस नौकरानी के पति जैसे असंख्य लोगों और उसमें ज्यादा फर्क नहीं रहता पर उसने अनजाने में अमृता पर हाथ खाया था। तो मैं कह सकता हूं कि कहीं ना कहीं पेरेंटिंग और सोशल स्ट्रक्चर , सामाजिक व्यवस्था ने उसके बाल मन में यह बात बैठाई थी जैसा कि बबलू के मन में था।
Ambil Film Poster.jpg
चित्र www.wikipedia.com से साभार 

दूसरी फिल्म जो इस घटना को मुझे समझने में मदद किया वह मलयालम फिल्म "अम्बिलि" थी। इसको subtitles के सहारे देखा था मैंने। कहानी है अम्बिलि नाम के एक अनाथ की जिसके माता पिता की मृत्यु बचपन में हो जाती है। सारा गांव अम्बिलि से प्रेम करता है और हल्का फुल्का हंसी मजाक भी। अम्बिलि को कोई मानसिक बीमारी ही जिसकी वजह से वह थोड़ा बच्चों जैसा व्यव्हार करता है। उसे अपने बचपन के दोस्त बॉबी से बहुत ज्यादा लगाव है क्यूंकि उसके साथ उसकी बचपन की यादें जुडी है। बॉबी गांव से बाहर पढता है और एक प्रसिद्द cyclist बन चूका है पर सबसे पहले उसे साइकिल दिया था अम्बिलि के पिता ने। अम्बिलि का लगाव जितना बॉबी से उतना किसी और से नहीं है किन्तु बॉबी अम्बिलि को पसंद नहीं करता है। अम्बिलि और बॉबी की बहन एक दूसरे को चाहते है ,यह बात जब बॉबी को पता चलता है तो वह अम्बिलि पर हाथ उठा देता है,उसे पीटता है किन्तु अम्बिलि इस घटना का जिक्र किसी से नहीं करता है। वह इस घटना को भूल जाता है और बॉबी से पूर्ववत ही प्रेम करता है। उसका बॉबी से लगाव कम नहीं होता है।
अम्बिलि ऐसा क्यों है? वह बॉबी से इतना प्रेम कैसे कर सकता हैं? यह समझना भी जरुरी है। आखिर क्या ऐसा है जो एक व्यक्ति को किसी पर हाथ उठाने को प्रेरित करता है और वह उन दोनों के बिच के रिश्ते में जीवन भर के लिए दरार डाल देता है। अमृता विक्रम से वापस से वैसा ही प्रेम क्यों नहीं कर पाई जैसा वह पहले करती थी ? विक्रम को क्यों नहीं लगा कि उसने हाथ उठाकर गलती की? वहीँ दूसरी ओर अम्बिलि ने तुरंत ही वह सब भुला दिया,गम भूलकर बस प्रेम को आगे बढ़ाया ? क्या यह सब बालमन में अंकित होता है? क्या parenting और सामाजिक परिवेश भी अपनी भूमिका निभाती है? जो भी हो हमें मिलकर इनके कारणों का पता लगाना होगा।

हमेशा की तरह सुझावों का स्वागत है
प्रशांत


Sunday, April 26, 2020

श्रीनिवास रामानुजन की 100वीं पुण्यतिथि पर पुष्प समर्पित





श्रीनिवास रामानुजन स्कूली दिनों से ही मेरे लिए प्रेरणा व आकर्षण का केंद्र रहे हैं। मुझे ध्यान नहीं कि मैंने कब पहली बार उनके बारे में जाना था, शायद 2009-2010 का समय रहा होगा या उससे पहले, पता नहीं। परंतु पहली बार में ही मैंने उनकी कहानी में सबकुछ पा लिया था जो अभी तक मेरे साथ है और अब जब भी मैं उनके बारे में पढ़ता हूं तो उससे अधिक कुछ नहीं जान पाता हूं। उनका जीवन छोटा था और दुर्भाग्य से कहानी भी छोटी है पर उस छोटे से जीवन काल में जिस अनंत को उन्होंने छुआ वह निश्चित तौर पर मेरे जैसे बच्चे को प्रेरित करता रहेगा सदियों तक।


















मैंने उन पर उपलब्ध हर वीडियो देखा है, हर लेख पढ़ा है सिवाये उनकी गणितीय कार्यों को और यह मेरा दुर्भाग्य है। कभी-कभी लगता है की यह दुर्भाग्य केवल मेरा नहीं है भारत मां का भी है कि अब उनके कार्य और सिद्धांतों में जितनी रुचि विदेशी ले रहे हैं उतना हम भारतीय नहीं ले रहे हैं। 1729 को जब भी कहीं लिखा देखता हूं तो कहीं ना कहीं अचानक से मेरा ध्यान उनके चित्र पर आ जाता है। उनकी दो बड़ी आंखें और वह गंभीर दृष्टि। मानो वह मुझे घूर रहे हैं और पूछ रहे हो कि आखिर क्यों ? क्यों तुमने मुझसे तो प्रेम किया पर गणित में असफल रहे तुम? आखिर क्यों तुम्हें मेरी कहानियों में दिलचस्पी रही पर मेरे समीकरणों को देखा तक नहीं तुमने? सच कहूं तो मुझे डर लगता है उनके इन प्रश्नों को सुनने में और मेरा ध्यान हट जाता है।
रामानुजन की विलक्षण प्रतिभा के सामने पूरा विश्व झुकने लगा था। वह विश्व जो रामानुजन के काल में उनके भाई बंधुओं को गुलाम बना रहा था। उन्हें सर्वोच्च गणितज्ञों के में शुमार किया गया और रॉयल सोसाइटी फेलो बनाया गया,यह सम्मान फिर भी उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता था बल्कि यह सम्मान देकर उल्टे देने वाले ही सम्मानित हो गए थे और आज भी गर्व करते हैं इस बात पर। 22 दिसंबर 1887 को जन्म लेने वाले रामानुजन आज ही के दिन सौ साल पहले यानी 26 अप्रैल 1920 को अपनी लीला समाप्त कर गए। कितना कष्ट सहा उनके शरीर ने पर मन में गणित के सिवा कुछ नहीं सूझा उनको। बिस्तर पर पड़े हुए भी गणितीय समीकरणों से उलझे रहते थे। विदेश में भारतीयता न छूट जाए और अपना ब्राह्मण स्वभाव ना भूल पाए इसलिए रूखी सूखी जो भी खाते स्वयं बनाते । मैं जितनी बार उनको ध्यान करूंगा बस उनका कष्टकारी जीवन ही देख पाऊंगा, उनका गणित प्रेम ही देख पाऊंगा, उनके आनंद से झूमते मस्तिष्क के अंदर झांकने की मेरी हर कोशिश आज तक नाकाम रही है।
नमन

Friday, April 24, 2020

पहाड़ों की हरा नमक और यादें



हरा नमक : फोटो kafaltree.com  से 




हरे पुदीने की नमक का वह स्वाद अभी भी जिह्वा पर जैसे हो ! जब भी ध्यान आता है तो लगता है कितने भाग्यशाली हैं पहाड़ के लोग जो यह हरा नमक को खीरे, ककड़ी या दही, छाछ और मंद बहती पवन के साथ स्वाद ले लेकर खाते हैं। मैंने कहीं पढ़ा कि इसे पहाड़ वाले 'हरिया नूण' कहते हैं। जब मैं हिमाचल प्रदेश में था तो गांव वालों ने खेत से तोड़कर ताजे खीरे खाने को दिए थे, हमने खाना शुरु कर दिया बिना नमक या कुछ और मांगे तो एक औरत ने हमें रुकने को कहा। मैं तब तक आधा खीरा खा चुका था क्योंकि खीरे का स्वाद भी अद्भुत था। रोकने पर मैं थोड़ा खिन्न ही हुआ था। थोड़ी ही देर बाद घर के पीछे से एक औरत पुदीना तोड़ लाई और सिल बट्टे पर नमक मिलाकर पीसने लगी, मैंने पुदीने को नमक के साथ एक हो जाने की प्रक्रिया देखी और नमक को हरा होते हुए भी देखा है मैंने।
सिलबट्टा : तस्वीर साभार गांव से 

तस्वीर साभार दैनिक जागरण से 





उस वक्त तो ध्यान में अधखाया खीरा था पर अभी जब उस वक्त को याद करता हूं तो पाता हूं की हरा नमक बनाने की प्रक्रिया भी उतनी ही अद्भुत थी जितना कि उसका स्वाद है। नूण तैयार करने के बाद उन्होंने हमें दिया और उसके बाद तो मैं खीरे का स्वाद ही भूल गया। सिलबट्टा या लोड़्ही पाटी (जैसा हमारे घर में कहा जाता है) का उपयोग तो हमारे घर में भी होता आया है और सच कहता हूं कि आधुनिक मिक्सर से ज्यादा स्वाद भरता है यह। न जाने क्या है इन पत्थरों में कि यह जुड़ जाता है सीधा स्वाद तंतुओं से।
यूं तो हम साधारण लोग दो-तीन तरह के नमक का प्रयोग करते हैं, एक साधारण समुद्री नमक, दूसरा फैक्ट्री में संशोधित आयोडीन नमक और तीसरा सेंधा नमक। लेकिन पहाड़ वालों ने क्या खूब बनाया है हरा नमक। वैसे सबसे आसान तरीका तो है पुदीने और नमक को पीसकर बनाना लेकिन इसके अलावा हरी मिर्ची लहसुन के पत्ते अदरक धनिया को पीसकर भी नमक तैयार किया जाता है जिसका स्वाद अवर्णनीय हो जाता है और लोग चटकारे लेकर खाते हैं। पहाड़ में पलायन की समस्या काफी गंभीर है परंतु शायद यह हरा नमक का स्वाद उनको अपने जड़ों को भूलने नहीं देता है।
हरे पुदीने की नमक पहाड़ की रसोई की एक अभिन्न अंग है। उत्तराखंड और हिमाचल की पहाड़ों में जब औरतें लकड़ियां बिनने जाती है या खेतों पर काम करतीं हैं तो एक पोटली में हरा नमक और रोटी लेती जाती है।यह उनका एक समय का भोजन होता है। पहाड़ की औरतें बहुत मेहनती होती हैं पर शायद यह हरा नमक के साथ मीठी रोटी खाकर वे थकान को भूलकर उसी प्रेम से अपने काम में लग जाती है जितने प्रेम से वें हरिया नूण तैयार करतीं हैं।

धन्यवाद ❣️
प्रशांत

Sunday, April 19, 2020

शुक्रिया अदा करना


हिमाचल के रेरी गांव में (आईना देखो के दरम्यां )



शुक्रिया अदा करना एक ऐसा कार्य है जो इंसान को इस झूठी दुनिया में सच की ओर लौटने को प्रेरित करता है। यह अपने आप घटित होता है, कोई बलपूर्वक किसी का शुक्रिया करवा भी ले तो यह शुक्रिया नहीं रह जाता है, यह बस खानापूर्ति रह जाता है और जिंदगी में इसका कोई महत्व भी नहीं रह पाता है। यह तो दिल से घटित होता है, जो किसी का शुक्रिया अदा करता है उसका दिल ही जानता है कि वह कैसा महसूस करता है। कभी-कभी तो चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान छा जाता है और आंखों में चमक आ जाती है। शुक्रिया अदा करने से जिसका शुक्रिया किया गया हो वह जितना प्रसन्न होता है उससे ज्यादा खुशी शुक्रिया करने वाले की अंतस को होती है। ऐसा नहीं है कि शुक्रिया केवल लोगों का किया जाता है। अक्सर लोग बहुत सी अमूर्त चीजों का भी शुक्रिया अदा करते हैं। जिंदगी का शुक्रिया लोग अक्सर करते हैं। हर बीतते पल के साथ,प्रत्येक सांस के साथ लोग भले ध्यान दें या ना दें पर मन और शरीर बहुत सी अज्ञात चीजों का शुक्रिया अदा करता रहता है। शुक्रिया अदा करने से जीवन में हम आगे बढ़ जाते हैं, ऐसा करना इसलिए जरूरी भी है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि हम किसी के उपकार करने के बाद अगर आभार जता नहीं पाते हैं तो वह हमें सालों तक कचोटता रहता है, लेकिन जैसे ही हम उसको शुक्रिया अदा करते हैं हमें लगता है कि हमने दिल से एक बड़ा बोझ उतार दिया हो। शुक्रिया अदा करने या आभार व्यक्त करने के अलग अलग तरीके हैं, व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किसी का कैसे शुक्रिया अदा करता है। यहां तक कि पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक शुक्रिया अदा करना नहीं भूलते हैं। खैर मैं आप सबका शुक्रिया करता हूं कि आपने मेरा लेख पढा।

प्रशांत

Saturday, April 18, 2020

कोरोना और घर में सब्जियों का इंतजाम


पिछले दो-तीन दिनों से सुबह 9 बजे के करीब थैला उठाकर मैं घर से निकलता हूं सब्जियां लाने को। वैसे तो रजौली में सब्जियां कई जगह बिकती है, बजरंगबली चौक और हाट मेरा पसंदीदा जगह रहा है सब्जी खरीदने के लिए। इसके अलावा पुरानी बस स्टैंड और बीच बाजार से भी कभी-कभार खरीद लेता हूं परंतु अभी के हालात में जब घरों से कम से कम निकलना है तो कोशिश कर रहा हूं कि जितने नजदीक में सब्जी मिल जाए उतना अच्छा। इसलिए बाजार चला जाता हूं झोला उठाकर आस-पास के गांव से कुछ किसान, बच्चे और बूढ़ी औरतें कुछ ना कुछ बेचने के लिए सुबह ही आकर बैठ जाते हैं। बाजार के लोग तो इसी आस में रहते हैं व उनके आते ही वे सब्जियां खरीदने के लिए टूट पड़ते है, यह देखने लायक होता है। मैं अकसर देर से पहुँचता हूँ किंतु फिर भी थोड़ा देर में जाने के बाद भी मेरे हिस्से कुछ ना कुछ आ ही जाता है। आज ककड़ी, भिंडी, साग, मिर्च, बैगन, टमाटर आदि बेच रहे थे वे सब। आमतौर पर प्याज, लहसुन,आलू और शहतूत, केंदुई जैसे कुछ फल भी कभी कभार मिल जाते हैं किंतु अभी सब कोई डर रहा है। ज्यादा देर बाजार में वे टिकना भी नहीं चाहते हैं इसलिए कम दाम में ही जल्दी-जल्दी बेच कर घर निकल जाते हैं।आज मैंने भिंडी खरीदी 1 किलो ₹25 में और ककड़ी भी 1 किलो ₹25 में, एक किसान के यहां एक पाव खीरा बचा हुआ था उन्होंने ₹10 में मुझे दिया। मैं तरबूज खोज रहा था परंतु वो मिला नहीं इसलिए उतना ही लेकर घर चला आया।
घर में भी मां के साथ मिलकर अपना बगिया बनाया हुआ है हमने। सहजन या मूनगा परसो ही तोड़ा था हमने। इस साल सहजन ना केवल हमने खाया बल्कि आस पड़ोस में बाटा भी, गजब की सब्जी है एक बार में लग भी जाती है और अगले साल से फरना शुरू भी हो जाता है।इसलिए दो तीन जगह और लगा दिया है इसबार। इसके अलावा हर 2 दिन में 2-3 बैगन मां तोड़कर चोखा बना देती है। टमाटर इस बार पकने से पहले पंछियों, चूहों और कीड़ों का शिकार हो जा रहा है इसलिए कच्चा ही रोज तोड़ लेते हैं। मिर्च तो खैर आज तक बाहर से खरीदने की जरूरत नहीं पड़ी। एक थंभी केला भी फरा हुआ है। दो सप्ताह में केले खाने लायक हो जाएंगे। इस साल पहली बार पांच कागजी नींबू फरा है और चार पपीता भी। मां सुबह-सुबह काफी मेहनत करती है, सभी पेड़ों को पानी देती है और सब्जियां तोड़ती है। 5 दिन पहले एक बीज भंडार से ₹30 का भिंडी, लाल साग और परोर ( नेनुआ ) का बीज लाया था उसे भी अलग-अलग जगहों पर लगा दिया है। भिंडी और लाल साग तो परसों ही उग आई थी, परोर नहीं उगा था। आज सुबह देखा कि 4-5 परोर भी उग आए हैं। शाम को पानी देना पड़ता है और कुछ ज्यादा काम तो नहीं है परंतु 20- 25 दिनों के बाद जब ये सब फरना शुरू होगा तो मां अवश्य खुश होगी। वैसे घर के पीछे हमारे पड़ोसी सब्जियों की खेती करते हैं ज्यादा जरूरत रहती है तो उनसे ही सब्जियां लेते हैं हम। रिक्शा और ठेला पर भी सब्जियां बेचने आ रहे है कुछ लोग। आशा करता हूँ देश के हर परिवार में इस विपत्ति काल में ऐसे ही सब्जियां उपलब्ध हो रही होंगी।
यहाँ कुछ फोटो भी है।
परोर पहली बार जमीं से बाहर झांकता है 


लाल साग और भिण्डी 

घर के पीछे का बैंगन खेत 

 
कढ़ी पत्ता 



सहजन 
पुरानी बस स्टैंड में सब्जी बाजार 


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