जिंदगी में पता नहीं कब आस्था से परिचय हुआ ? किस पड़ाव पर मैंने भगवान के अस्तित्व पर विश्वास किया ? न जाने कैसे मैंने पहली बार अपने मुख से हनुमान जी का नाम लिया था या दुर्गा माँ को पुकारा था ? बचपना मेरा कब का गुजर चूका है पर मुझे ध्यान नहीं कि कब पहली बार मैंने देवी-देवताओं के मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ प्रणाम किया था ? कबसे मैंने अपनी मन की आँखों में शिवलिंग को भोला बाबा का रूप मानकर बैठाया हुआ है? मुझे याद नहीं कि कब मैंने कर्मकांड व पूजा अर्चना की एक खास विधि को अपना लिया ? कब मैंने भगवान् सूर्य को पहला अर्घ्य दिया था या कब मैंने पहली बार कपूर-अगरबत्ती जलाई थी ?
मंदिर में पहला प्रवेश तो शायद ही मुझे ध्यान हो क्योंकि होश होने से पूर्व सैकड़ों बार मैं अपना सर झुका आया होगा देवी माँ के सामने। हाँ, फिर भी जब भी याद करने की कोशिश करता हूँ तो गांव का सती-स्थान / देवी मंदिर का जीवंत चित्र बन जाता है जहाँ अंदर में मामा- गुरुआईन जी के साथ पूजा कर रही है और बाहर बौंडरीके किनारे कनैलके फूल के निचे मैं अन्य बच्चों के साथ कुछ खेल-कूद में व्यस्त था। याद आता है माँ का ललाट पर काला टिका लगाना और दोनों हाथ पकड़कर मुझे और मेरे भाई को देवी माँ के सामने झुकने के लिए सिखाना। मंदिर कितना जीवंत लगता है आज भी। मंदिर प्रांगण में लगा पीपल का पेड़ भी हिलता नजर आ जाता है और कुआँ से पानी का कल कल आवाज़ सुनाई पड़ता है। उस वक़्त से आज तक न जाने कितने ही मंदिर कितने ही बार गया हूँ। कुछ की तो बिलकुल याद नहीं पर बहुत की यादें बिलकुल ऐसे ही तरोताज़ा है। लगभग जिस घर में रहा हूँ वहां एक भीत्तर ( रूम को हमलोग भीत्तर कहते हैं ) पूजा भीत्तर के रूप में रहता ही था, भेलवाटांड़ में तो दो-दो भीत्तर था जिसे हम 'सीरा भीत्तर' कहते हैं। उस भीत्तर में लाल-लाल टीका मिट्टी के दीवालों पर और न जाने कितने ही देवी-देवताओं की चित्र टंगे हुए थे।
खैर मैं इस बात पर था कि आखिर पहली बार किसने परिचय कराया उस असीम से। मुझे पूरी तरह से नहीं पर हल्का-फुल्का याद आता है कि पहली बार गुरूजी ने स्लेट पर अंगुली पकड़कर "क" लिखवाया था, उससे पहले "राम" लिखवाया था उन्होंने। वैसे माँ ने उनसे पहले ' क ख ग ' लिखना शुरू कर दिया था, शायद गिनती भी। जब मैं एक हाथ में स्लेट पेल्सिट और दूसरे हाथ में बोरा लेकर मंदिर के सामने स्कूल जाने लगा था तो शायद हाथ जोड़कर प्रार्थना भी करना शुरू कर दिया था। किनसे प्रार्थना किया क्यों किया था, ये तो मालूम नहीं। लगभग उसी वक़्त बावा ने मुझे मदरसा भी भिजवाया था। मौलवी साहेब 'अली बे ते ...' सीखा गए , उसके बाद न मैं कभी कुछ पढ़ पाया उर्दू में। लेकिन मदरसे के बगल में में आ रहे लोगों को नमाज अता करते जरूर देखा मैंने। भेलवाटांड़ में ही पहली बार मुस्लिम युवकों को मयूर पंख लिए पैक लगाते देखा और कर्बला में शकरपाला ( घर में बनने वाली एक प्रकार की मिठाई ) खाया। उस शकरपाला का स्वाद आज भी मिठाइयों के मिठास को मात देता है। घर के आँगन में दर्जनों भगत - भगतिनियों को भरते देखा हैं मैंने बचपन में, भगवान् के नए रंग-रूपों से शायद परिचय तब हो ही रहा था। एक दिन मेरे हाथ में दूध सा सफ़ेद और कागज सा पतला चूड़ा आया जिसे खाया मैंने, सफ़ेद मीठी गोलियों के साथ। पेड़े का एक टुकड़ा तो अभी भी मेरे स्वाद तंतुओं में समाया जान पड़ता हैं। पहले मामा ने दोनों भाइयों के गले में माला पहना दिया था उस रोज़। बाद में पता चला कि वह बाबा धाम का प्रसाद था जिसका स्वाद अभी भी स्वाद तंतुओं ने सहजेकर रखा है। इसी तरह अलग अलग दिशाओं से अनेक प्रसाद मैं ग्रहण करता रहा यह जाने बगैर कि ये सबसे पहले उस अनंत को भोग लगाया गया जिसे मैं आजतक नहीं जान पाया। अनुमानतः यह सब २००२-०३ के पहले की बातें हैं।

खैर मैं इस बात पर था कि आखिर पहली बार किसने परिचय कराया उस असीम से। मुझे पूरी तरह से नहीं पर हल्का-फुल्का याद आता है कि पहली बार गुरूजी ने स्लेट पर अंगुली पकड़कर "क" लिखवाया था, उससे पहले "राम" लिखवाया था उन्होंने। वैसे माँ ने उनसे पहले ' क ख ग ' लिखना शुरू कर दिया था, शायद गिनती भी। जब मैं एक हाथ में स्लेट पेल्सिट और दूसरे हाथ में बोरा लेकर मंदिर के सामने स्कूल जाने लगा था तो शायद हाथ जोड़कर प्रार्थना भी करना शुरू कर दिया था। किनसे प्रार्थना किया क्यों किया था, ये तो मालूम नहीं। लगभग उसी वक़्त बावा ने मुझे मदरसा भी भिजवाया था। मौलवी साहेब 'अली बे ते ...' सीखा गए , उसके बाद न मैं कभी कुछ पढ़ पाया उर्दू में। लेकिन मदरसे के बगल में में आ रहे लोगों को नमाज अता करते जरूर देखा मैंने। भेलवाटांड़ में ही पहली बार मुस्लिम युवकों को मयूर पंख लिए पैक लगाते देखा और कर्बला में शकरपाला ( घर में बनने वाली एक प्रकार की मिठाई ) खाया। उस शकरपाला का स्वाद आज भी मिठाइयों के मिठास को मात देता है। घर के आँगन में दर्जनों भगत - भगतिनियों को भरते देखा हैं मैंने बचपन में, भगवान् के नए रंग-रूपों से शायद परिचय तब हो ही रहा था। एक दिन मेरे हाथ में दूध सा सफ़ेद और कागज सा पतला चूड़ा आया जिसे खाया मैंने, सफ़ेद मीठी गोलियों के साथ। पेड़े का एक टुकड़ा तो अभी भी मेरे स्वाद तंतुओं में समाया जान पड़ता हैं। पहले मामा ने दोनों भाइयों के गले में माला पहना दिया था उस रोज़। बाद में पता चला कि वह बाबा धाम का प्रसाद था जिसका स्वाद अभी भी स्वाद तंतुओं ने सहजेकर रखा है। इसी तरह अलग अलग दिशाओं से अनेक प्रसाद मैं ग्रहण करता रहा यह जाने बगैर कि ये सबसे पहले उस अनंत को भोग लगाया गया जिसे मैं आजतक नहीं जान पाया। अनुमानतः यह सब २००२-०३ के पहले की बातें हैं।

उसी घर में देवता के लिए खस्सी कटते हुए देखा है मैंने, उसका लाल रक्त को देवता को चढ़ाकर मुझे भी दिया गया था, मैंने ग्रहण करने से इंकार किया भी नहीं जब तक कि प्लास्टिक में नहीं आने लगा और नाम जान नहीं लिया कि खस्सी अब मीट बन चूका है।
कितने ही कर्मकांडों और अनुभवों से गुजर चूका था इस बात से अनजान की जिनके लिए ये सब किया गया उसे अब तक कोई जान ही नहीं सका है। वह असंख्य रूपों में, अनगिनत तस्वीरों में न जाने कौन कौन सा जगह बैठा हुआ है। स्कूल जाने लगा तो शायद नए विचारों ने मेरे मस्तिष्क में उथल पुथल की। ध्यान हुआ कि गणेश भगवन की पूजा एक खास दिन ही होती है जो साल में सिर्फ एक बार आता है या फिर सरस्वती मैया की मूर्ति भी एक ही बार आती साल में। लेकिन उत्सवों से परिचय हुआ तो मूल बात को छोड़कर बाकि सारी बातें जान गया। कोलकता में था तो रथयात्रा भी देखा मैंने और कहनियाँ भी सुनी, दुर्गोत्सव का वृहत रूप भी देखा। लेकिन सारा कथा कहानी जानकर भी मैं बहुत सी बातों से अनजान था और आज भी हूँ। छठ पूजा में नदी में आस्था से परिचय हुआ मेरा पर महात्मय जाने ज्यादा बरस न हुआ।
इतना लिखने के बाद भी मुझे यह याद नहीं आया कि कब मैं हनुमान-चालीसा पढ़ना शुरू किया और किस कारन से ? कब मैंने काली माँ की फोटू के सामने माफ़ी मांगना शुरू किया ? कब मैं पेड़-पौधों-प्रकृति के कण-कण में उसको देखने की कोशिश करने लगा जिसे किसी ने नहीं देखा है।
शायद बारह- तरह वर्ष का रहा होऊंगा तब भगवान् के नए आयामों से परिचय हुआ होगा कि वो निराकार,निर्गुण और सर्वव्यापी है और शायद उसी उम्र में मैं नास्तिक भी रहा था जब कई-कई महीनो तक उनके सामने मेरे माता पिता और अन्य लोग सर झुकाते थे। फिर भी अभी मैं नास्तिकता और आस्तिकता से ऊपर उठ चूका हूँ पर ईश्वर को समझ नहीं पाया। माँ कहती है वो सबके अंदर है जैसे कस्तूरी मृग के अंदर रहता है और वो पागल पुरे जंगल में ढूंढता रहता है।
कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूंढे वन माहि
ऐसे घाट घाट राम है दुनिया जानत नहीं।
किन्तु मेरा मन कई वर्षों से यह मानने को तैयार ही नहीं कि इतनी गन्दी हरकतें मैं करता हूँ तो वे मुझे अवश्य ही रोक लेते अगर मेरे अंदर होते। मैं कोई प्रह्लाद या ध्रुव तो नहीं। .अब जब कुछ किताबें पढ़ने लगा हूँ और बहुत से साधु संतों की बातें सुनने लगा हूँ तो मन और आत्मा-परमात्मा का कांसेप्ट समझने का प्रयास कर रहा हूँ उसे जो समझ से परें हैं पर सब व्यर्थ।
इसलिए फिर से मैं पूछने की कोशिश कर रहा हूँ कि आखिर वो कौन सा दिन था जब पहली बार मेरा परिचय इस संसार में उनसे हुआ था ?
प्रशांत

कितने ही कर्मकांडों और अनुभवों से गुजर चूका था इस बात से अनजान की जिनके लिए ये सब किया गया उसे अब तक कोई जान ही नहीं सका है। वह असंख्य रूपों में, अनगिनत तस्वीरों में न जाने कौन कौन सा जगह बैठा हुआ है। स्कूल जाने लगा तो शायद नए विचारों ने मेरे मस्तिष्क में उथल पुथल की। ध्यान हुआ कि गणेश भगवन की पूजा एक खास दिन ही होती है जो साल में सिर्फ एक बार आता है या फिर सरस्वती मैया की मूर्ति भी एक ही बार आती साल में। लेकिन उत्सवों से परिचय हुआ तो मूल बात को छोड़कर बाकि सारी बातें जान गया। कोलकता में था तो रथयात्रा भी देखा मैंने और कहनियाँ भी सुनी, दुर्गोत्सव का वृहत रूप भी देखा। लेकिन सारा कथा कहानी जानकर भी मैं बहुत सी बातों से अनजान था और आज भी हूँ। छठ पूजा में नदी में आस्था से परिचय हुआ मेरा पर महात्मय जाने ज्यादा बरस न हुआ।
इतना लिखने के बाद भी मुझे यह याद नहीं आया कि कब मैं हनुमान-चालीसा पढ़ना शुरू किया और किस कारन से ? कब मैंने काली माँ की फोटू के सामने माफ़ी मांगना शुरू किया ? कब मैं पेड़-पौधों-प्रकृति के कण-कण में उसको देखने की कोशिश करने लगा जिसे किसी ने नहीं देखा है।
शायद बारह- तरह वर्ष का रहा होऊंगा तब भगवान् के नए आयामों से परिचय हुआ होगा कि वो निराकार,निर्गुण और सर्वव्यापी है और शायद उसी उम्र में मैं नास्तिक भी रहा था जब कई-कई महीनो तक उनके सामने मेरे माता पिता और अन्य लोग सर झुकाते थे। फिर भी अभी मैं नास्तिकता और आस्तिकता से ऊपर उठ चूका हूँ पर ईश्वर को समझ नहीं पाया। माँ कहती है वो सबके अंदर है जैसे कस्तूरी मृग के अंदर रहता है और वो पागल पुरे जंगल में ढूंढता रहता है।
कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूंढे वन माहि
ऐसे घाट घाट राम है दुनिया जानत नहीं।
किन्तु मेरा मन कई वर्षों से यह मानने को तैयार ही नहीं कि इतनी गन्दी हरकतें मैं करता हूँ तो वे मुझे अवश्य ही रोक लेते अगर मेरे अंदर होते। मैं कोई प्रह्लाद या ध्रुव तो नहीं। .अब जब कुछ किताबें पढ़ने लगा हूँ और बहुत से साधु संतों की बातें सुनने लगा हूँ तो मन और आत्मा-परमात्मा का कांसेप्ट समझने का प्रयास कर रहा हूँ उसे जो समझ से परें हैं पर सब व्यर्थ।
इसलिए फिर से मैं पूछने की कोशिश कर रहा हूँ कि आखिर वो कौन सा दिन था जब पहली बार मेरा परिचय इस संसार में उनसे हुआ था ?
प्रशांत

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आपके कमेंट के लिए अग्रिम धन्यवाद सहित -प्रशांत