Saturday, June 27, 2020

साथ चलने की चाह

" मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!
"

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह पंक्तियां कुछ हद तक ही सही मेरे जीवन को परिभाषित करतीं हैं। मैं ऐसा इसलिए कह सकता हूँ क्यूंकि मैं जीवन के घटनाओं व उपक्रमों में सबके साथ होने पर भी मैं अकेला रहा। हां, यह पूरी तरह से सच भी नहीं है पर इसको झुठलाया भी नहीं जा सकता है। एक मनुष्य के रूप में मुझे समाज में ही रहना पड़ा है और समाज में रिश्ते-नातों का जाल बिछा होने के बावजूद मैं उस जाल में अधिकतर समय कैद रहने के बावजूद उससे अछूता रहा। हो सकता है कि मेरा यह कथन आपके भावनाओं से मेल न खाये, आप सोचने के लिए स्वतंत्र हैं कि कैसे समुद्र का एक बून्द यह कह रहा है कि वो समुद्र से अलग रहा है। समुद्र में मिला होने के बाद भी उसे लग रहा है कि समुद्र से वह अलग है। लेकिन ताजुब्ब की बात यह है कि वह अकेला रहना भी नहीं चाह रहा है, उसका अकाक्षां है कि वह समुद्र हो जाये परेशानी बस इतनी है वह किसी से कह नहीं पा रहा है। मैं व्यक्त नहीं कर पाया इस बात को कभी।

" यह जानते हुए भी
  कि आगे बढना
  निरंतर कुछ खोते जाना
  और अकेले होते जाना है
  मैं यहाँ तक आ गया हूँ
"

बहरहाल मैं आगे बढ़ता रहा, जीवन के नए आयामों को जीने की कोशिश करता रहा। भविष्य के प्रति आशान्वित होकर प्रत्येक सुबह को शाम करता रहा मैं। लेकिन सुबह और शाम के बीच ताप्ती दुपहरी को झेलना पड़ा। मैंने उसे कैसे झेला यह भी व्यक्त नहीं कर सकता पर उस तपती दुपहरी ने बहुत कुछ छोड़ने पर मजबूर किया। संभव है मेरा मन भी रहा हो छोड़ कर आगे बढ़ जाने को पर यह बात उतना ही सत्य है कि यह सब वर्षों के अनुभवों के कारण ही संभव हो पाया। केवल एक तपती दुपहरी में वो क्षमता नहीं कि वह मुझे कुछ छोड़ने पर मजबूर कर देता परन्तु यह भी उतना ही सच है कि जब मैंने कुछ छोड़ा था वह एक उमसभरी तपती दुपहरी ही थी। जीवन में आगे बढ़ता रहा हर बीतते पल के साथ कुछ छूटता गया मुझसे, कुछ खोता गया मैं। जैसा कवि ने कहा मैं जान रहा था और महसूस कर पा रहा था। बहुत कुछ खोने के बाद भी अनवरत चलना मानव की नियति रही है। थकन , रुकावटें , बंधन आदि तो बस पड़ाव मात्र है।  चलना ही जीवन है पर कोई साथ चले तो यात्रा आसान लगती है।  यह साथ माता-पिता-भाई-बहन का भी हो सकता है, गुरु का भी हो सकता है या स्नेहिल मित्रों का भी हो सकता है  कल्पना में तैरते अनंत पात्रों में से कोई एक भी साथ चल सकता है।  यह अपने ऊपर है कि हम कैसे और किसे साथ लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं।  

आपका

प्रशांत




कोई मेरे साथ चले / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना



मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!
अक्सर दरख्तों के लिये
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खडा रहा
वे अपनी हरीयाली
अपने फूल फूल पर इतराते
अपनी चिडियों में उलझे रहे
मैं आगे बढ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जडों में नहीं बदल पाया
यह जानते हुए भी
कि आगे बढना
निरंतर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख्तों की लंबी छायाएं
मुझे घेरे हुए हैं......
किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम
मुझे
और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
चाहा जरुर!


1 comment:

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आपके कमेंट के लिए अग्रिम धन्यवाद सहित -प्रशांत

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