Sunday, April 26, 2020

श्रीनिवास रामानुजन की 100वीं पुण्यतिथि पर पुष्प समर्पित





श्रीनिवास रामानुजन स्कूली दिनों से ही मेरे लिए प्रेरणा व आकर्षण का केंद्र रहे हैं। मुझे ध्यान नहीं कि मैंने कब पहली बार उनके बारे में जाना था, शायद 2009-2010 का समय रहा होगा या उससे पहले, पता नहीं। परंतु पहली बार में ही मैंने उनकी कहानी में सबकुछ पा लिया था जो अभी तक मेरे साथ है और अब जब भी मैं उनके बारे में पढ़ता हूं तो उससे अधिक कुछ नहीं जान पाता हूं। उनका जीवन छोटा था और दुर्भाग्य से कहानी भी छोटी है पर उस छोटे से जीवन काल में जिस अनंत को उन्होंने छुआ वह निश्चित तौर पर मेरे जैसे बच्चे को प्रेरित करता रहेगा सदियों तक।


















मैंने उन पर उपलब्ध हर वीडियो देखा है, हर लेख पढ़ा है सिवाये उनकी गणितीय कार्यों को और यह मेरा दुर्भाग्य है। कभी-कभी लगता है की यह दुर्भाग्य केवल मेरा नहीं है भारत मां का भी है कि अब उनके कार्य और सिद्धांतों में जितनी रुचि विदेशी ले रहे हैं उतना हम भारतीय नहीं ले रहे हैं। 1729 को जब भी कहीं लिखा देखता हूं तो कहीं ना कहीं अचानक से मेरा ध्यान उनके चित्र पर आ जाता है। उनकी दो बड़ी आंखें और वह गंभीर दृष्टि। मानो वह मुझे घूर रहे हैं और पूछ रहे हो कि आखिर क्यों ? क्यों तुमने मुझसे तो प्रेम किया पर गणित में असफल रहे तुम? आखिर क्यों तुम्हें मेरी कहानियों में दिलचस्पी रही पर मेरे समीकरणों को देखा तक नहीं तुमने? सच कहूं तो मुझे डर लगता है उनके इन प्रश्नों को सुनने में और मेरा ध्यान हट जाता है।
रामानुजन की विलक्षण प्रतिभा के सामने पूरा विश्व झुकने लगा था। वह विश्व जो रामानुजन के काल में उनके भाई बंधुओं को गुलाम बना रहा था। उन्हें सर्वोच्च गणितज्ञों के में शुमार किया गया और रॉयल सोसाइटी फेलो बनाया गया,यह सम्मान फिर भी उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता था बल्कि यह सम्मान देकर उल्टे देने वाले ही सम्मानित हो गए थे और आज भी गर्व करते हैं इस बात पर। 22 दिसंबर 1887 को जन्म लेने वाले रामानुजन आज ही के दिन सौ साल पहले यानी 26 अप्रैल 1920 को अपनी लीला समाप्त कर गए। कितना कष्ट सहा उनके शरीर ने पर मन में गणित के सिवा कुछ नहीं सूझा उनको। बिस्तर पर पड़े हुए भी गणितीय समीकरणों से उलझे रहते थे। विदेश में भारतीयता न छूट जाए और अपना ब्राह्मण स्वभाव ना भूल पाए इसलिए रूखी सूखी जो भी खाते स्वयं बनाते । मैं जितनी बार उनको ध्यान करूंगा बस उनका कष्टकारी जीवन ही देख पाऊंगा, उनका गणित प्रेम ही देख पाऊंगा, उनके आनंद से झूमते मस्तिष्क के अंदर झांकने की मेरी हर कोशिश आज तक नाकाम रही है।
नमन

Friday, April 24, 2020

पहाड़ों की हरा नमक और यादें



हरा नमक : फोटो kafaltree.com  से 




हरे पुदीने की नमक का वह स्वाद अभी भी जिह्वा पर जैसे हो ! जब भी ध्यान आता है तो लगता है कितने भाग्यशाली हैं पहाड़ के लोग जो यह हरा नमक को खीरे, ककड़ी या दही, छाछ और मंद बहती पवन के साथ स्वाद ले लेकर खाते हैं। मैंने कहीं पढ़ा कि इसे पहाड़ वाले 'हरिया नूण' कहते हैं। जब मैं हिमाचल प्रदेश में था तो गांव वालों ने खेत से तोड़कर ताजे खीरे खाने को दिए थे, हमने खाना शुरु कर दिया बिना नमक या कुछ और मांगे तो एक औरत ने हमें रुकने को कहा। मैं तब तक आधा खीरा खा चुका था क्योंकि खीरे का स्वाद भी अद्भुत था। रोकने पर मैं थोड़ा खिन्न ही हुआ था। थोड़ी ही देर बाद घर के पीछे से एक औरत पुदीना तोड़ लाई और सिल बट्टे पर नमक मिलाकर पीसने लगी, मैंने पुदीने को नमक के साथ एक हो जाने की प्रक्रिया देखी और नमक को हरा होते हुए भी देखा है मैंने।
सिलबट्टा : तस्वीर साभार गांव से 

तस्वीर साभार दैनिक जागरण से 





उस वक्त तो ध्यान में अधखाया खीरा था पर अभी जब उस वक्त को याद करता हूं तो पाता हूं की हरा नमक बनाने की प्रक्रिया भी उतनी ही अद्भुत थी जितना कि उसका स्वाद है। नूण तैयार करने के बाद उन्होंने हमें दिया और उसके बाद तो मैं खीरे का स्वाद ही भूल गया। सिलबट्टा या लोड़्ही पाटी (जैसा हमारे घर में कहा जाता है) का उपयोग तो हमारे घर में भी होता आया है और सच कहता हूं कि आधुनिक मिक्सर से ज्यादा स्वाद भरता है यह। न जाने क्या है इन पत्थरों में कि यह जुड़ जाता है सीधा स्वाद तंतुओं से।
यूं तो हम साधारण लोग दो-तीन तरह के नमक का प्रयोग करते हैं, एक साधारण समुद्री नमक, दूसरा फैक्ट्री में संशोधित आयोडीन नमक और तीसरा सेंधा नमक। लेकिन पहाड़ वालों ने क्या खूब बनाया है हरा नमक। वैसे सबसे आसान तरीका तो है पुदीने और नमक को पीसकर बनाना लेकिन इसके अलावा हरी मिर्ची लहसुन के पत्ते अदरक धनिया को पीसकर भी नमक तैयार किया जाता है जिसका स्वाद अवर्णनीय हो जाता है और लोग चटकारे लेकर खाते हैं। पहाड़ में पलायन की समस्या काफी गंभीर है परंतु शायद यह हरा नमक का स्वाद उनको अपने जड़ों को भूलने नहीं देता है।
हरे पुदीने की नमक पहाड़ की रसोई की एक अभिन्न अंग है। उत्तराखंड और हिमाचल की पहाड़ों में जब औरतें लकड़ियां बिनने जाती है या खेतों पर काम करतीं हैं तो एक पोटली में हरा नमक और रोटी लेती जाती है।यह उनका एक समय का भोजन होता है। पहाड़ की औरतें बहुत मेहनती होती हैं पर शायद यह हरा नमक के साथ मीठी रोटी खाकर वे थकान को भूलकर उसी प्रेम से अपने काम में लग जाती है जितने प्रेम से वें हरिया नूण तैयार करतीं हैं।

धन्यवाद ❣️
प्रशांत

Sunday, April 19, 2020

शुक्रिया अदा करना


हिमाचल के रेरी गांव में (आईना देखो के दरम्यां )



शुक्रिया अदा करना एक ऐसा कार्य है जो इंसान को इस झूठी दुनिया में सच की ओर लौटने को प्रेरित करता है। यह अपने आप घटित होता है, कोई बलपूर्वक किसी का शुक्रिया करवा भी ले तो यह शुक्रिया नहीं रह जाता है, यह बस खानापूर्ति रह जाता है और जिंदगी में इसका कोई महत्व भी नहीं रह पाता है। यह तो दिल से घटित होता है, जो किसी का शुक्रिया अदा करता है उसका दिल ही जानता है कि वह कैसा महसूस करता है। कभी-कभी तो चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान छा जाता है और आंखों में चमक आ जाती है। शुक्रिया अदा करने से जिसका शुक्रिया किया गया हो वह जितना प्रसन्न होता है उससे ज्यादा खुशी शुक्रिया करने वाले की अंतस को होती है। ऐसा नहीं है कि शुक्रिया केवल लोगों का किया जाता है। अक्सर लोग बहुत सी अमूर्त चीजों का भी शुक्रिया अदा करते हैं। जिंदगी का शुक्रिया लोग अक्सर करते हैं। हर बीतते पल के साथ,प्रत्येक सांस के साथ लोग भले ध्यान दें या ना दें पर मन और शरीर बहुत सी अज्ञात चीजों का शुक्रिया अदा करता रहता है। शुक्रिया अदा करने से जीवन में हम आगे बढ़ जाते हैं, ऐसा करना इसलिए जरूरी भी है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि हम किसी के उपकार करने के बाद अगर आभार जता नहीं पाते हैं तो वह हमें सालों तक कचोटता रहता है, लेकिन जैसे ही हम उसको शुक्रिया अदा करते हैं हमें लगता है कि हमने दिल से एक बड़ा बोझ उतार दिया हो। शुक्रिया अदा करने या आभार व्यक्त करने के अलग अलग तरीके हैं, व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किसी का कैसे शुक्रिया अदा करता है। यहां तक कि पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक शुक्रिया अदा करना नहीं भूलते हैं। खैर मैं आप सबका शुक्रिया करता हूं कि आपने मेरा लेख पढा।

प्रशांत

Saturday, April 18, 2020

कोरोना और घर में सब्जियों का इंतजाम


पिछले दो-तीन दिनों से सुबह 9 बजे के करीब थैला उठाकर मैं घर से निकलता हूं सब्जियां लाने को। वैसे तो रजौली में सब्जियां कई जगह बिकती है, बजरंगबली चौक और हाट मेरा पसंदीदा जगह रहा है सब्जी खरीदने के लिए। इसके अलावा पुरानी बस स्टैंड और बीच बाजार से भी कभी-कभार खरीद लेता हूं परंतु अभी के हालात में जब घरों से कम से कम निकलना है तो कोशिश कर रहा हूं कि जितने नजदीक में सब्जी मिल जाए उतना अच्छा। इसलिए बाजार चला जाता हूं झोला उठाकर आस-पास के गांव से कुछ किसान, बच्चे और बूढ़ी औरतें कुछ ना कुछ बेचने के लिए सुबह ही आकर बैठ जाते हैं। बाजार के लोग तो इसी आस में रहते हैं व उनके आते ही वे सब्जियां खरीदने के लिए टूट पड़ते है, यह देखने लायक होता है। मैं अकसर देर से पहुँचता हूँ किंतु फिर भी थोड़ा देर में जाने के बाद भी मेरे हिस्से कुछ ना कुछ आ ही जाता है। आज ककड़ी, भिंडी, साग, मिर्च, बैगन, टमाटर आदि बेच रहे थे वे सब। आमतौर पर प्याज, लहसुन,आलू और शहतूत, केंदुई जैसे कुछ फल भी कभी कभार मिल जाते हैं किंतु अभी सब कोई डर रहा है। ज्यादा देर बाजार में वे टिकना भी नहीं चाहते हैं इसलिए कम दाम में ही जल्दी-जल्दी बेच कर घर निकल जाते हैं।आज मैंने भिंडी खरीदी 1 किलो ₹25 में और ककड़ी भी 1 किलो ₹25 में, एक किसान के यहां एक पाव खीरा बचा हुआ था उन्होंने ₹10 में मुझे दिया। मैं तरबूज खोज रहा था परंतु वो मिला नहीं इसलिए उतना ही लेकर घर चला आया।
घर में भी मां के साथ मिलकर अपना बगिया बनाया हुआ है हमने। सहजन या मूनगा परसो ही तोड़ा था हमने। इस साल सहजन ना केवल हमने खाया बल्कि आस पड़ोस में बाटा भी, गजब की सब्जी है एक बार में लग भी जाती है और अगले साल से फरना शुरू भी हो जाता है।इसलिए दो तीन जगह और लगा दिया है इसबार। इसके अलावा हर 2 दिन में 2-3 बैगन मां तोड़कर चोखा बना देती है। टमाटर इस बार पकने से पहले पंछियों, चूहों और कीड़ों का शिकार हो जा रहा है इसलिए कच्चा ही रोज तोड़ लेते हैं। मिर्च तो खैर आज तक बाहर से खरीदने की जरूरत नहीं पड़ी। एक थंभी केला भी फरा हुआ है। दो सप्ताह में केले खाने लायक हो जाएंगे। इस साल पहली बार पांच कागजी नींबू फरा है और चार पपीता भी। मां सुबह-सुबह काफी मेहनत करती है, सभी पेड़ों को पानी देती है और सब्जियां तोड़ती है। 5 दिन पहले एक बीज भंडार से ₹30 का भिंडी, लाल साग और परोर ( नेनुआ ) का बीज लाया था उसे भी अलग-अलग जगहों पर लगा दिया है। भिंडी और लाल साग तो परसों ही उग आई थी, परोर नहीं उगा था। आज सुबह देखा कि 4-5 परोर भी उग आए हैं। शाम को पानी देना पड़ता है और कुछ ज्यादा काम तो नहीं है परंतु 20- 25 दिनों के बाद जब ये सब फरना शुरू होगा तो मां अवश्य खुश होगी। वैसे घर के पीछे हमारे पड़ोसी सब्जियों की खेती करते हैं ज्यादा जरूरत रहती है तो उनसे ही सब्जियां लेते हैं हम। रिक्शा और ठेला पर भी सब्जियां बेचने आ रहे है कुछ लोग। आशा करता हूँ देश के हर परिवार में इस विपत्ति काल में ऐसे ही सब्जियां उपलब्ध हो रही होंगी।
यहाँ कुछ फोटो भी है।
परोर पहली बार जमीं से बाहर झांकता है 


लाल साग और भिण्डी 

घर के पीछे का बैंगन खेत 

 
कढ़ी पत्ता 



सहजन 
पुरानी बस स्टैंड में सब्जी बाजार 


Thursday, April 02, 2020

रामायण और यादें

यह मैंने दो दिन पहले लिखा था परन्तु पोस्ट नहीं कर पाया था। अभी ध्यान आया तो डाल रहा हूँ और साथ ही आपको सबको इस पोस्ट के माध्यम से रामनवमी की शुभकामना प्रेषित कर रहा हूँ।
तस्वीर साभार :इंटरनेट 

कल रात 9:00 बजने ही वाला था कि मां ने कहा- छत पर क्या कर रहे हो?टीवी चालू करके डीडी नेशनल लगाओ। रामायण देखो। मैं जान रहा था कि अभी तक पापा नहीं आए हैं घर में अन्यथा मां मुझसे नहीं कहती दो-तीन दिनों से पापा भी काफी उत्साहित है कि चलो रामायण देखेंगे। करीब 13-14 साल पहले हम जब कोलकाता में रहते थे तो उस वक्त मुझे काफी चस्का लगा हुआ था कार्टून देखने का। डोरेमोन,शिनचैन, पोकेमोन,स्पाइडर-मैन वगैरह देखा करता था।उसी बीच अगर रामायण शुरू हो जाता तो मम्मी रामायण चालू कर देती थी। "कुछ नहीं से अच्छा रामायण ही सही" ऐसा सोचकर मैं भी उसे देख ही लेता था। फिर तो रामायण एकदम नियत समय पर मैं भी देखने लगा था। बहुत से सीन मुझे लगता है कि अभी तक मेरी आंखों में घूमता रहता है। इसलिए मैं फिर से नहीं देखना चाहता हूं क्योंकि समय के साथ यादें भी अपना रूप बदलने लगती है। मैं चाहता हूं कि हनुमान जी की जो यादें बचपन में मेरे मन में बसी वह अब नहीं बदले। ना ही बदले वह भाव जिसमें भारत और लक्ष्मण, राम के प्रति अपना प्रेम दर्शाते हैं।ऐसे ही यादें अन्य कई सीरियल के साथ जुड़े हुए हैं। बचपन में जब मां रोटी बनाती हुई रामायण देखती थी तो वह हमें अपने बचपन की कहानी कभी-कभार सुनाया करती थी।उनके बचपन में गांव में रंगीन टीवी नहीं आया था, ब्लैक एंड व्हाइट टीवी किसी पड़ोसी के यहां आया था और पूरा गांव जमा होता था रामायण देखने के लिए। वैसे मैं कहां से कहां चला गया तो मां के दो बार कहने पर मैंने टीवी चलाई।सीता मां का स्वयंवर का दृश्य था,बड़े-बड़े शूरवीर सभा में बैठे हुए थे। ऐसे में गुरु विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण भी पहुंचे। स्वयंवर शुरू होने से पहले महाराज जनक ने शर्त दोहरावाया "शिव के धनुष पर जो वीर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, उससे ही जानकी का विवाह होगा।" मुझे आज तक नहीं पता चला कि ऐसा शर्त उन्होंने क्यों रखा ? परंतु कुछ कहानियां अवश्य ही सुनी है उस अद्भुत शिव धनुष के बारे में। पूरी जानकारी तो मुझे भी नहीं है पर फिर भी जेहन में है तो लिख दे रहा हूं। हुआ यूं कि महाराज जनक ने उस महान शिव धनुष को जिसे उनके पूर्वजों ने संभाल कर रखा था उसे एक अति विशिष्ट कमरे में रखवाया था। सीता जब एक बार उस कमरे को साफ कर रही थी तो उन्होंने अपने हाथ से धनुष को एक जगह से हटाकर दूसरे जगह रख दिया और फिर कमरे को साफ करके पूर्ववर्त रखना भूल गयी। यह खबर जब जनक को मिली तब शायद उन्होंने सोचा कि अपनी पुत्री के वर की योग्यता का निर्धारण इस बात से करेंगे कि वह इस धनुष पर प्रत्यंचा तो अवश्य चढ़ा ले। वैसे जहां तक मुझे जानकारी है कि राजा जनक भी उस धनुष को नहीं उठा पाते थे
चलिए आगे चलते हैं। जब सभी शूरवीर उस शिव धनुष को हिला पाने में असमर्थ रहे तो जनक के मन में निराशा के भाव उठे। उन्होंने अपने को उस तरह का निर्णय लेने के लिए कोसा क्योंकि सीता कुमारी ही रह जाती। उसी समय विश्वामित्र की आज्ञा से राम उठे, सभा अट्टहास करने लगी एक सुकुमार राजकुमार को इस प्रतियोगिता में भाग लेने पर। राम ने सभी को प्रणाम किया और धनुष को उठाने के पहले कुछ क्षण सीता को देखा मानो वह मन ही मन आज्ञा ले रहे हो। राम धनुष उठा कर जब प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करने लगे तो धनुष टूट गया, सभा हतप्रभ हो गई। जनक की खुशी का ठिकाना ना रहा परंतु तभी भगवान परशुराम क्रोधित होकर वहां पहुंचे।
मां यह सब देख रही थी उसी वक्त पापा और निशांत लौट आये उसके बाद हम सबने साथ मिलकर आगे देखने लगे। शायद दिनभर इधर-उधर मन भटकाने के बाद उस आधे घंटे में हम सबके मन शांत हो गए थे। लेकिन वैसे समय में भी कभी ना कभी कोई न कोई कोरोना की बंदी की चर्चा कर ही देता था। कैसे गरीब लोग मुश्किल में फंसे हुए हैं उसकी बात भी हम कर ही लेते थे।

सियाराम जी की जय


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