ऐसा है दोस्त कि मुझे लगता है, मुझे ये पोस्ट नहीं लिखना चाहिए परन्तु फिर भी लिखने को तत्पर हूँ। मेरी इस अंतर्द्वंद को एक प्रसंग से तुम समझ सकते हो।
दो दोस्त एक बार एक रेगिस्तान से गुजर रहे थे। इस दौरान किसी बात को लेकर दोनों में बहस हो गई। इस पर एक दोस्त ने दूसरे दोस्त के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया। जिस दोस्त के गाल पर थप्पड़ लगा वह दुखी हुआ और बालू पर लिखा- आज मेरे बेस्ट फ्रैंड ने मेरे गाल पर थप्पड़ मारा।
अंदर आते ही ट्रेन के आने की सुचना हुई। भीड़ देखकर मेरा हौसला फिर टुटा पर फिर भी गेट पर खड़ा हुआ और लोगों की धक्कामुक्की के कारण अंदर ठेला गया। अब ना हिल सकता था और ना बैग रखने का इंतजाम कर सकता था। लोग एक दूसरे के ऊपर ऐसे चढ़कर आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे थे जैसे वहां कोई हो ही नहीं। मैं तो खैर इतना बर्दाश्त कर लिया पर बूढी दादियों का हाल देखकर चौक उठता था। एक सीट पर आठ आदमी बैठे हुए थे और सब आपस में एक इंच के लिए लड़ रहे थे। इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता था, यहाँ तक की सोच भी नहीं सकता था। थूकना और बात करना तो दूर की बात थी। वारसलीगंज आकर कुछ लोग उतरे तो मैं अंदर जाकर खड़ा हुआ पर यहाँ भी काफी लोग चढ़े , और फिर वही ढाक के तीन पात वाला हाल।
सुल्तानगंज पंहुचा तो बैठने की जगह थोड़ी सी मिली।
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तस्वीर और प्रसंग गूगल की कृपा से |
दो दोस्त एक बार एक रेगिस्तान से गुजर रहे थे। इस दौरान किसी बात को लेकर दोनों में बहस हो गई। इस पर एक दोस्त ने दूसरे दोस्त के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया। जिस दोस्त के गाल पर थप्पड़ लगा वह दुखी हुआ और बालू पर लिखा- आज मेरे बेस्ट फ्रैंड ने मेरे गाल पर थप्पड़ मारा।
इसके बाद दोनों आगे बढ़े और कुछ दूर जाने पर एक झील मिली। यहां दोनों ने नहाने का फैसला किया। जिसके गाल पर थप्पड़ पड़ा था वह झील में कुछ गहराई में चला गया और वहां मौजूद कीचड़ में फंस गया और धीरे- धीरे डूबने लगा। लेकिन तभी पास में मौजूद उसके दोस्त ने उसे बचा लिया। इस पर डूबने वाले मित्र ने पत्थर पर लिखा - आज मेरे बेस्ट फ्रेंड ने मेरी जान बचाई।
अब जिस दोस्ते ने अपने दूसरे दोस्त को थप्पड़ मारा था और उसकी जान बचाई थी उसे रहा नहीं गया। उसने पूछा कि जब मैंने आपको थप्पड़ मारकर दुख पहुंचाया तो आपने बालू पर लिखा और जब आपकी जान बचाई तो आपने पत्थर पर लिखा। ऐसा क्यों ?
इस पर दूसरे दोस्त ने जवाब दिया - जब हमें कोई दुख पहुंचाता है तो इसे बालू पर लिखना चाहिए क्योंकि हवा का झोंका समय के साथ इसे मिटा देगा। लेकिन जब कोई आपके लिए अच्छा करे तो इसे पत्थर पर लिखा देना चाहिए इस हवा या वक्त मिटा न सके।
कहानी का सारांश - आपको सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ना है तो बुरी या दुख पहुंचाने वाली बातों को भुला दो और आपके साथ जो किसी ने अच्छा किया उसे याद रखो।
कहानी का जो सारांश है उसपर अगर तुम गौर करो तुम्हे मेरा अंतर्द्वंद समझ आएगा जिसकी बात मैंने ऊपर की है , जबकि मेरी परेशानी ये है कि जब ये पोस्ट लिखने का मेरा मन हुआ तो मेरे साथ जो सकारात्मक घटा उसपर कुछ न लिखने का फैसला कर उलटे जो नकारात्मक हुआ उसपर लिखना शुरू किया। ये सोचने वाली बात है जबकि हम सब जानते है कि हर घटना के दो पहलु होते हैं पर फिर भी हमारा ध्यान पहले नकारात्मक चीजों की ओर पहले जाती है , इस बात को तुम अपने आस पास भी अनुभव कर सकते हो। खैर मै अपनी कहानी पूरी करता हूँ।
बात ऐसी है कि मैं चार-पांच दिन पहले बांका जिला के शोभानपुर गांव जाने के लिए घर से निकला था। मुझे नवादा से ट्रेन पकड़कर भागलपुर पहुंचना था और उसके आगे का रास्ता मुझे मालूम नहीं था। गया-हावड़ा ट्रेन जैसा की वो प्रसिद्द है एक बजकर बीस मिनट में नवादा से खुलने वाली थी और मुझे टिकट भी खरीदना था। इसलिए घर दो घंटे पहले निकल गया था जबकि रास्ता मात्र एक घंटा का है। सौभाग्य से बस भी जल्द ही मिल गयी और सड़क पर गड्ढों के बिच से हिचकोले खाते हुए धीमी गति से मंजिल की ओर निकल पड़ी। लेकिन माखर (रजौली-नवादा के बीच में एक गांव) के पास जाम लगा हुआ था ,आमतौर पर इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर जाम नहीं लगता है।पता चला कि कोई ट्रक उलट गया है, मैंने समय का हिसाब किया तो अब भी मेरे पास एक घंटे और दस मिनट का समय था,इसलिए चुपचाप बैठा रहा।बस पर शांति से बैठने का एक कारण और भी रहता है ,वो है बस का खचाखच भरा होना और वैसे माहौल में मुझे उलटी आना। बस पर कुछ छात्र भी थे जो स्नातक दूसरे वर्ष की परीक्षा देने के लिए जा रहे थे, वे बस से उतर कर पैदल आगे जाने लगे। एक व्यक्ति पूरी तरह से परेशान हो गया था , वह हर एक बात पर टिपण्णी कर रहा था। बस एक मिनट बढ़ता तो भी वह कुछ बोल रहा था और बस बंद हो जाती तो भी। कभी ड्राइवर को गरियाता तो कभी प्रशासन को कोसता। उसकी देखादेखी कुछ लोगों ने लालू-नितीश-मोदी को भी गरिआया। अबतक बस पांच मीटर भी नहीं बढ़ पाया था और लगभग एक बज चूका था। मुझे हलकी सी असहजता महसूस होने लगी। मैंने ट्रेन का समय फिर चेक किया पर लेट होने की सम्भावना नहीं थी। उस व्यक्ति की बात सुनकर मुझे मालूम हुआ कि वो हावड़ा जाने के लिए उसी ट्रेन को पकड़ना चाह रहा था। उसने किसी से टिकट भी कटवा ली थी। जब करीब पच्चीस मिनट बचे तो पुलिस की एक गाड़ी पहुंची और किसी तरह जाम खुला। मैंने आशा छोड़ दी थी, इसलिए पुनः शांति से बैठ गया था। परन्तु जब बस नवादा पहुंची तो मैंने सोचा कि पूरा कोशिश अंत तक करनी चाहिए। इसलिए मैंने दौड़ लगाई पर नवादा शहर ऐसा है कि हर किसी को जल्दी होती है। शहर में जाम अलग समस्या है, फिर भी एक इ-रिक्सा पर बैठकर पुल तक पंहुचा और उतरकर गली में जा घुसा। मुझसे दौड़ा नहीं जा रहा था पर अब भी तीन चार मिनट बचे हुए थे और बचा हुआ था तीन सौ मीटर की दुरी। मैंने सोचा की टिकट नहीं खरीदूंगा पर जाऊंगा जरूर। स्टेशन पर बेतहाशा भीड़ थी। पता किया तो ट्रेन अभी तक पहुंची नहीं थी शायद दस मिनट देर हो गयी थी। मैंने टिकट काउंटर से टिकट ले लिया, उस वक़्त तक मै पसीने से भींग गया था। टिकट देनेवाले पूछा "एतना परेशान काहे हीँ"


मैंने खिड़की से बाहर की खूबसूरती देखने का फैसला किया। उस वक़्त तक मेरे मन में किसी प्रति कोई भाव नहीं था , नाही मैं रेलवे को गरिया रहा था और नहीं अपने निर्णय को कोस रहा था। मैंने पहले भी लोकल ट्रेन में घुसने की हिम्मत की थी पर उस वक़्त खूब गरियाता था सरकार और उसकी दोगली नीतियों को पर इसबार मैं थक गया था शायद। किउल नदी की स्थिति देखी मैंने , शायद उसकी धारा मेरी तरह ही थकी हुई थी। खैर किसी तरह मैं भागलपुर पहुंच गया।
परसो मैंने भागलपुर से वापस आने का फैसला किया तो फिर से यही ट्रेन थी लेकिन इसबार सुबह साढ़े चार बजे। वो तो सिद्धार्थ भैया और मनोज सर का प्रेम था कि उन्होंने अपने घर में मुझे सुलाया और सुबह स्टेशन तक पंहुचा गए। सुबह उतनी भीड़ नहीं थी, मैंने टिकट ली और एक स्लीपर बोगी में घुस गया,पिछली बार की तरह मैं जनरल बोगी में नहीं गया। चप्पल मैंने निचे खोला और सबसे ऊपर स्लीपर पर जाकर सो गया। करीब नौ बजे नवादा पहुंचने वाली थी इसलिए मैंने निचे उतरने का सोचा तो फिर वही भीड़। अब निचे उतरकर चप्पल खोज रहा हु तो मुझे मिल ही नहीं रही, मुझे लगा कि कोई और पहनकर उतर गया।चप्पल महंगी नहीं थी पर अस्सी रूपये मैंने कुछ दिन पहले ही खरीदी थी। मै खाली पैर ही खड़ा हो गया पर मुझे देखकर एक सज्जन को शायद बुरा लगा, उन्होंने और लोगो को डाटा और जगह बनाई और मुझसे फिर से खोजने का निवेदन किया। मैंने फिर प्रयास किया पर जो होना था सो हो चूका था। ट्रेन नवादा पहुंच चुकी थी ,लोग उतरने को उतावले हो गए परन्तु कोई व्यक्ति जबरदस्ती चढ़ने का प्रयास करने लगा। इस कारण हम उतर नहीं पा रहे थे। तब तक दूसरी ओर के लोग उतर चुके थे, हम उधर भागे और ट्रेन खुलने को थी कि हम उतरे।
ऐसी हमारी यात्रा रही। अपने ही लोगों की बुराई मैं करना नहीं चाह रहा था पर शायद किसी और वजह से मैंने लिखने का फैसला किया। लोगों की मानसिकता कैसे बनती है और कैसे लोग एक दूसरे का भला बुरा सोचते है उसपर मुझे सोचने की जरुरत है शायद।
-प्रशांत
परसो मैंने भागलपुर से वापस आने का फैसला किया तो फिर से यही ट्रेन थी लेकिन इसबार सुबह साढ़े चार बजे। वो तो सिद्धार्थ भैया और मनोज सर का प्रेम था कि उन्होंने अपने घर में मुझे सुलाया और सुबह स्टेशन तक पंहुचा गए। सुबह उतनी भीड़ नहीं थी, मैंने टिकट ली और एक स्लीपर बोगी में घुस गया,पिछली बार की तरह मैं जनरल बोगी में नहीं गया। चप्पल मैंने निचे खोला और सबसे ऊपर स्लीपर पर जाकर सो गया। करीब नौ बजे नवादा पहुंचने वाली थी इसलिए मैंने निचे उतरने का सोचा तो फिर वही भीड़। अब निचे उतरकर चप्पल खोज रहा हु तो मुझे मिल ही नहीं रही, मुझे लगा कि कोई और पहनकर उतर गया।चप्पल महंगी नहीं थी पर अस्सी रूपये मैंने कुछ दिन पहले ही खरीदी थी। मै खाली पैर ही खड़ा हो गया पर मुझे देखकर एक सज्जन को शायद बुरा लगा, उन्होंने और लोगो को डाटा और जगह बनाई और मुझसे फिर से खोजने का निवेदन किया। मैंने फिर प्रयास किया पर जो होना था सो हो चूका था। ट्रेन नवादा पहुंच चुकी थी ,लोग उतरने को उतावले हो गए परन्तु कोई व्यक्ति जबरदस्ती चढ़ने का प्रयास करने लगा। इस कारण हम उतर नहीं पा रहे थे। तब तक दूसरी ओर के लोग उतर चुके थे, हम उधर भागे और ट्रेन खुलने को थी कि हम उतरे।
ऐसी हमारी यात्रा रही। अपने ही लोगों की बुराई मैं करना नहीं चाह रहा था पर शायद किसी और वजह से मैंने लिखने का फैसला किया। लोगों की मानसिकता कैसे बनती है और कैसे लोग एक दूसरे का भला बुरा सोचते है उसपर मुझे सोचने की जरुरत है शायद।
-प्रशांत