आज अचानक पुदीना-इमली की याद आ गई। आपलोग सोच सकते हैं कि अचानक क्यों ? आखिर कुछ तो बात हुई होगी। कुछ लोग जो हर बात में अतिशयोक्ति ढूंढने में लगे रहते हैं, उनके मन में यह संदेह भी उठा होगा कि आखिर इस लड़के को 'पुदीना-इमली' में ऐसा क्या खास लगा कि अचानक याद आ गया।
बतलाता हूँ, हुआ यूं कि दोपहर को कमरे से निकल जैसे ही रसोई में पहुंचा तो मुझे हवा के एक झोंके ने गांव पहुंचा दिया। उस क्षण ऐसा लगा मानो मैं दिल्ली में नहीं अपने गांव में हूँ। इस तपती दुपहरी में घर के बाहर की छोटी सी गली में एक आदमी माथे पर हरी सी टोकरी उठाए हुए चिल्लाते जा रहा है 'पुदीना इमली ले लो' 'पुदीना इमली ले लो'। मुझे लगा माँ ने मुझसे दाम पूछने को कहा और मैंने वापस जवाब दिया 'पूछना क्या है माँ, एक मुट्ठी ले आता हूं' और मैं दौड़ता हुआ घर से निकल कर उसे रोकने के लिए पहुंचा। वह आदमी मुझे देख कर रुक गया और अपने खजाने को जमीन पर रख कर पूछा 'कितना लेना है?' टोकरी में हरा हरा पुदीना रखा हुआ था और एक कोने में लगभग एक किलो खट्टी इमली रखी हुई थी। मुझे मालूम नहीं कि पुदीने के साथ इमली ही क्यों लगता है? कुछ और क्यों नहीं? शायद इसलिए कि पुदीने की कड़वाहट को इमली का खट्टापन दूर करता होगा और जब दोनों मिलते हैं तो एक ऐसा स्वाद हमारे लिए बनता है जो हमें आज भी याद आता है तभी तो दिल्ली की तपती गर्मी में उस हवा के झोंके ने अचानक ही पुदीना इमली की याद दिला दी।
इस साल मैंने पुदीने-इमली की चटनी नहीं चखी और ना ही आम चखे। घर से दूर रहने पर राजा भी गरीब हो जाता है। मैं तो खैर विद्यार्थी ठहरा, किसी तरह दाल-भात-चोखा बना कर गुजारा करने वाला, बेस्वाद सब्जी बनाकर पेट भरने वाला। मुझे कहां नसीब होगा पुदीने-इमली की अमृत सी चटनी और कहां से मैं खा पाउंगा जर्दालू, दशहरी, लंगड़ा, मालदह आम। इसमें कोई शक नहीं कि लोगों को दिल्ली - पटना जैसे शहर एक हसीन सपना सा लगता है पर गांव की बात ही कुछ और होती है। विद्यार्थी ही जानते हैं कि असलियत क्या होती है, नहीं तो ऐसा क्यों होता कि रह-रहकर मुझे गांव की याद आ जाती? गांवों में अमौरी तोड़ने से शुरु होता है सफर गर्मियों का और भिन्न भिन्न किस्मों के आम खाने पर खत्म होता है। दोपहर में भात के साथ पुदीना की चटनी खाकर मन नाच उठता है। फिर शाम तक आम के बाग में कोयल की कुहूक सुनते हुए मीठी नींद के आगोश में चले जानेवाले आदमी को दिल्ली-पटना क्यों भाने लगा भला?पुदीना भारत में तुलसी जितना प्रसिद्ध तो नहीं है पर औषधीय गुणों के कारण हरेक आदमी जरुर खाता है। मुझे तो याद नहीं कि मैंने पुदीने को कब पसंद करना शुरु किया, शायद 8 वर्ष का रहा होउंगा जब हाट से सब्जियों के साथ में पुदीना-इमली खरीदा था। हाट से घर आने पर मेरा पहला काम होता था पुदीने के तने से पत्ते को अलग करके गमले में रोपना।कुछ दिनों बाद घर में ही पुदीना उग जाया करता था, हाँ इमली का जुगाड़ करना थोड़ा मुश्किल हो जाया करता था। यह क्रम 2013 तक चलता रहा, उसके बाद तो बस छुट्टियों में ही इतना फुर्सत मिलता था।
कुछ इस तरह से गमलों में उगाया करता था मैं पुदीना।
(सभी तस्वीरें इंटरनेट से)
बतलाता हूँ, हुआ यूं कि दोपहर को कमरे से निकल जैसे ही रसोई में पहुंचा तो मुझे हवा के एक झोंके ने गांव पहुंचा दिया। उस क्षण ऐसा लगा मानो मैं दिल्ली में नहीं अपने गांव में हूँ। इस तपती दुपहरी में घर के बाहर की छोटी सी गली में एक आदमी माथे पर हरी सी टोकरी उठाए हुए चिल्लाते जा रहा है 'पुदीना इमली ले लो' 'पुदीना इमली ले लो'। मुझे लगा माँ ने मुझसे दाम पूछने को कहा और मैंने वापस जवाब दिया 'पूछना क्या है माँ, एक मुट्ठी ले आता हूं' और मैं दौड़ता हुआ घर से निकल कर उसे रोकने के लिए पहुंचा। वह आदमी मुझे देख कर रुक गया और अपने खजाने को जमीन पर रख कर पूछा 'कितना लेना है?' टोकरी में हरा हरा पुदीना रखा हुआ था और एक कोने में लगभग एक किलो खट्टी इमली रखी हुई थी। मुझे मालूम नहीं कि पुदीने के साथ इमली ही क्यों लगता है? कुछ और क्यों नहीं? शायद इसलिए कि पुदीने की कड़वाहट को इमली का खट्टापन दूर करता होगा और जब दोनों मिलते हैं तो एक ऐसा स्वाद हमारे लिए बनता है जो हमें आज भी याद आता है तभी तो दिल्ली की तपती गर्मी में उस हवा के झोंके ने अचानक ही पुदीना इमली की याद दिला दी।
इस साल मैंने पुदीने-इमली की चटनी नहीं चखी और ना ही आम चखे। घर से दूर रहने पर राजा भी गरीब हो जाता है। मैं तो खैर विद्यार्थी ठहरा, किसी तरह दाल-भात-चोखा बना कर गुजारा करने वाला, बेस्वाद सब्जी बनाकर पेट भरने वाला। मुझे कहां नसीब होगा पुदीने-इमली की अमृत सी चटनी और कहां से मैं खा पाउंगा जर्दालू, दशहरी, लंगड़ा, मालदह आम। इसमें कोई शक नहीं कि लोगों को दिल्ली - पटना जैसे शहर एक हसीन सपना सा लगता है पर गांव की बात ही कुछ और होती है। विद्यार्थी ही जानते हैं कि असलियत क्या होती है, नहीं तो ऐसा क्यों होता कि रह-रहकर मुझे गांव की याद आ जाती? गांवों में अमौरी तोड़ने से शुरु होता है सफर गर्मियों का और भिन्न भिन्न किस्मों के आम खाने पर खत्म होता है। दोपहर में भात के साथ पुदीना की चटनी खाकर मन नाच उठता है। फिर शाम तक आम के बाग में कोयल की कुहूक सुनते हुए मीठी नींद के आगोश में चले जानेवाले आदमी को दिल्ली-पटना क्यों भाने लगा भला?पुदीना भारत में तुलसी जितना प्रसिद्ध तो नहीं है पर औषधीय गुणों के कारण हरेक आदमी जरुर खाता है। मुझे तो याद नहीं कि मैंने पुदीने को कब पसंद करना शुरु किया, शायद 8 वर्ष का रहा होउंगा जब हाट से सब्जियों के साथ में पुदीना-इमली खरीदा था। हाट से घर आने पर मेरा पहला काम होता था पुदीने के तने से पत्ते को अलग करके गमले में रोपना।कुछ दिनों बाद घर में ही पुदीना उग जाया करता था, हाँ इमली का जुगाड़ करना थोड़ा मुश्किल हो जाया करता था। यह क्रम 2013 तक चलता रहा, उसके बाद तो बस छुट्टियों में ही इतना फुर्सत मिलता था।
कुछ इस तरह से गमलों में उगाया करता था मैं पुदीना।
(सभी तस्वीरें इंटरनेट से)