Thursday, May 31, 2018

पुदीना-इमली की चटनी

आज अचानक पुदीना-इमली की याद आ गई। आपलोग सोच सकते हैं कि अचानक क्यों ? आखिर कुछ तो बात हुई होगी। कुछ लोग जो हर बात में अतिशयोक्ति ढूंढने में लगे रहते हैं, उनके मन में यह संदेह भी उठा होगा कि आखिर इस लड़के को 'पुदीना-इमली' में ऐसा क्या खास लगा कि अचानक याद आ गया 


बतलाता हूँ, हुआ यूं कि दोपहर को कमरे से निकल जैसे ही रसोई में पहुंचा तो मुझे हवा के एक झोंके ने गांव पहुंचा दिया। उस क्षण ऐसा लगा मानो मैं दिल्ली में नहीं अपने गांव में हूँ। इस तपती दुपहरी में  घर के बाहर की छोटी सी गली में एक आदमी माथे पर हरी सी  टोकरी उठाए हुए चिल्लाते जा रहा है 'पुदीना इमली ले लो' 'पुदीना इमली ले लो'। मुझे लगा माँ ने मुझसे दाम पूछने को कहा और मैंने वापस जवाब दिया 'पूछना क्या है माँ, एक मुट्ठी ले आता हूं' और मैं दौड़ता हुआ घर से निकल कर उसे रोकने के लिए पहुंचा। वह आदमी मुझे देख कर रुक गया और अपने खजाने को जमीन पर रख कर पूछा 'कितना लेना है?'  टोकरी में हरा हरा पुदीना रखा हुआ था और एक कोने में लगभग एक किलो खट्टी इमली रखी हुई थी। मुझे मालूम नहीं कि पुदीने के साथ इमली ही क्यों लगता है? कुछ और क्यों नहीं? शायद इसलिए कि पुदीने की कड़वाहट को इमली का खट्टापन दूर करता होगा और जब दोनों मिलते हैं तो एक ऐसा स्वाद हमारे लिए बनता है जो हमें आज भी याद आता है तभी तो दिल्ली की तपती गर्मी में उस हवा के झोंके ने अचानक ही पुदीना इमली की याद दिला दी। 


इस साल मैंने पुदीने-इमली की चटनी नहीं चखी और ना ही आम चखे। घर से दूर रहने पर राजा भी गरीब हो जाता है। मैं तो खैर विद्यार्थी ठहरा, किसी तरह दाल-भात-चोखा बना कर गुजारा करने वाला, बेस्वाद सब्जी बनाकर पेट भरने वाला। मुझे कहां नसीब होगा पुदीने-इमली की अमृत सी चटनी और कहां से मैं खा पाउंगा जर्दालू, दशहरी, लंगड़ा, मालदह आम। इसमें कोई शक नहीं कि लोगों को दिल्ली - पटना जैसे शहर एक हसीन सपना सा लगता है  पर गांव की बात ही कुछ और होती है। विद्यार्थी ही जानते हैं कि असलियत क्या होती है, नहीं तो ऐसा क्यों होता कि रह-रहकर मुझे गांव की याद आ जाती? गांवों में अमौरी तोड़ने से शुरु होता है सफर गर्मियों का और भिन्न भिन्न किस्मों के आम खाने पर खत्म होता है। दोपहर में भात के साथ पुदीना की चटनी खाकर मन नाच उठता है। फिर शाम तक आम के बाग में कोयल की कुहूक सुनते हुए मीठी नींद के आगोश में चले जानेवाले आदमी को दिल्ली-पटना क्यों भाने लगा भला?पुदीना भारत में तुलसी जितना प्रसिद्ध तो नहीं है पर औषधीय गुणों के कारण हरेक आदमी जरुर खाता है। मुझे तो याद नहीं कि मैंने पुदीने को कब पसंद करना शुरु किया, शायद 8 वर्ष का रहा होउंगा जब हाट से सब्जियों के साथ में पुदीना-इमली खरीदा था। हाट से घर आने पर मेरा पहला काम होता था  पुदीने के तने से पत्ते को अलग करके गमले में रोपना।कुछ दिनों बाद घर में ही पुदीना उग जाया करता था, हाँ इमली का जुगाड़ करना थोड़ा मुश्किल हो जाया करता था।  यह क्रम 2013 तक चलता रहा, उसके बाद तो बस छुट्टियों में ही इतना फुर्सत मिलता था।
कुछ इस तरह से गमलों में उगाया करता था मैं पुदीना।

(सभी तस्वीरें इंटरनेट से)

Tuesday, May 08, 2018

रेलयात्रा : अवलोकन

पिछली बार जब आनंद विहार से घर जाने क लिए ट्रेन पर बैठा था तो मेरी सीट पक्की थी इसलिए निश्चिंत होकर सारी तैयारी करके रेलयात्रा किया था पर हर दिन एक जैसा नहीं होता है। मुझे स्नातक अंतिम वर्ष में नामांकन कराने के लिए रजौली जाना है और एक महिने पहले से ही स्लीपर के लिए टिकट देखना शुरू किया था पर एक भी सीट खाली नहीं मिली। वेटिंग का आकड़ा ऐसा कि कन्फर्म होन की कोइ आशा नहीं दिखा। 3एसी में खोजा पर उसका हाल भी यही निकला। उससे आगे मै देख नहीं सकता था, आखिर हर व्यक्ति की तरह मेरी भी कोई सीमा है। अगर आप सोच रहे हैं कि फ्लाइट का विकल्प है कि नहीं तो बतला दूं कि दिल्ली से रजौली जाने के लिए या तो पटना हवाईअड्डा उतरना पड़ेगा या गया और मेरे लिए दोनों की विकल्प सही नहीं ठहरता, उपर से किराये इतना की चार बार अप-डाउन कर लूं। वैसे मेरे द्वार तक तो रेल भी नहीं पहुंचाती है पर और कोई विकल्प न होने के कारण चुनाव में यही जीतता है। आप ये भी पुछ सकते हैं कि 'इतना रोना कर लिया, तत्काल टिकट के बारे में नहीं सुना क्या?' हां, जरुर सुना है और कई बार प्रयोग भी किया है पर इस बार लगातार तीन दिनों से प्रयास करने के बाद भी कन्फर्म टिकट हाथ नहीं लगा। क्या करें जनाब डिमांड इतना है कि रेलवे हम जैसे को सप्लाई कर नहीं पाता है या करना नहीं चाहता है। पैसें अब हफ्ताह भर के लिये रेलवे के पास गिरवी हो गया (आखिर टिकट बुक करने की हिम्मत जो की थी मैंने) और 60*3 =180 रुपये जुर्माना लगा पता नहीं किस गलती की। रेलवे कह कर लेता है, क्यों? तो कल फैसला किया कि जनरल टिकट लेकर चढ़ जाउंगा रेल में और बाकि बाद में सोचूंगा। पहले भी मजबूरी में कई बार ये कदम उठा चूका हूँ और दूर्भाग्य से बहुत ही बुरे अनुभव रहे हैं। जानता हूँ कि लाखों लोग इससे भी बुरे तरह से सफर करते हैं भारतीय रेल में।
आज सुबह चार बजे ही जग गया पर मन नहीं मान रहा था कि आज घर जाना है। लगभग आधे घंट बाद तैयार हुआ फिर कुछ कपड़े और पानी लेकर निकल पड़ा। एक बैग बस और वो भी लगभग खाली क्योंकि डर रहा था कि आदमी के लिए जगह नहीं मिलता है तो सामान कहां रखुंगा? वैसे मैं कम से कम दो थैले तो जरुर लेता हूँ। आनंद विहार पहुचकर लग गया अनारक्षित टिकट वाले लाइन में। 'एक कोडरमा का देना भैया' ऐसा कहते ही उसने मुंह बना लिया। बोला आज तो कोडरमा के लिए कोई ट्रेन ही नहीं। मैने कहा आनंद विहार-भुवनेश्वर एक्सप्रेस तो है। उसने जवाब दिया कि उसमें जनरल बोगी नहीं है। मैं फस गया था कुछ सोचकर वहां से हट गया। अब तो पक्का कर लिया कि स्लीपर बोगी में चढ़ जाना है और फाइन भरकर सफर करना है  इसलिए दूसरे काउंटर पर गया और एक मुगल सराय का मांगा। उसने दे दिया क्योंकि नॉर्थ इस्ट एक्सप्रेस मुगल सराय होते हुये जाती है। मैनें लिया और सीधा गया आनंद विहार-भुवनेश्वर के एस-6 में। ज्यादा भीड़ नहीं थी, एक जगह खाली देखकर बैठ गया। सामने चार-पांच लोग थे। दो व्यक्ति किसी चीज पर आपस में सलाह-मशविरा कर रहे थे, एक व्यक्ति जो ज्यादा उम्र के थे पर कम उम्र के लग रहे थे (बाद में बातचीत के दौरान पता चला कि उनका नाम संजय है और बोकारो के रहने वाले हैं पर कोडरमा में शिक्षक हैं) वे इयरफोन लगाकर कुछ सुन रहे थे।उनके ठीक सामन बैठे व्यक्ति विडियो कॉलिंग कर रहे थे( बाद में पता चला कि उनका नाम अमीत जी हैं और वे संजय जी के साथ हैं)। खैर ट्रेन अपने निर्धारित समय पर चल पड़ी। चलने से पहले मैने अनाउंसमेंट पर ध्यान दिया -'एक नंबर प्लेटफॉर्म पर 6 मई वाली सीमांचल एक्सप्रेस लगी है जो 7 खुलेगी। 7 मई वाली ट्रेन 12 बजकर 20 मिनट में खुलेगी। 7 मई वाले यात्री कृपया इसमें न बैठें।' हमलोग हसने लगे। 24 घंटे देरी से चल रही है वह ट्रेन, वो तो गनीमत है कि कैंसल नहीं हुआ।कल ही पढ़ा था कि बिहार की ट्रेनें सबसे ज्यादा लेट चल रही है। कानपुर-इलाहाबाद-मुगलसराय रुट सबसे व्यस्त रुट है, एक अनुमान के मुताबिक हर तीन मिनट में एक ट्रेन पास करती है इस रुट पर।दिल्ली से बिहार, झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, नॉर्थ ईस्ट की ट्रेन इस रुट पर चलती है और मुंबई वाली ट्रेन भी। उपर से पुरानी पटरियां होने के कारण लगातार मरम्मत कार्य भी चलते रहता है।इसके अलावा भी और बहुत से कारण है। समझ में नहीं आता कि रेल मंत्रालय क्या करता है?
 कुछ ही देर में रेलगाड़ी गाजियाबाद पहुँच गई और इसी के साथ शुरू हुआ चर्चा का दौर। हम सबमें एक ही बात समान थी कि हमलोग दिल्ली से एक ही रेल में बैठे थे और अपने अनुभवों व विचारों को आपस में साझा करने के लिए उत्सुक थे। मुगल सराय आते आते हम सबने खूब बातें की, समाज और लोगों की सोच पर कई छोटी-छोटी चर्चाएं की। राजनीति पर भी बातें हुई और रेल के लेट-लतीफी पर गहरा विश्लेषण भी किया। आशिष जी जो कि दिल्ली से झारखंड अपने घर जा रहे थे, ने मेरी एक फोटो भी खींच दी।

बातें करते करते पता चला कि अमीत जी व संजय जी झारखंड में शिक्षक हैं परंतु एक मार्केटिंग व्यवसाय में भी जुड़े हुए हैं, उन्होंने समझाया कि ग्रामीण क्षेत्र के एक शिक्षक को इस क्षेत्र में आने से पहले कितनी बातों का सामना करना पड़ा और कैसे उन्होंने उस हिचक को दूर किया। वे अपने कंपनी की तरफ से दिल्ली आये थे एक मोटिवेशनल ट्रेनिंग के लिए। दोनों ने ही इस बात को स्वीकार किया कि इससे उनके अंदर कितना सकारात्मक बदलाव आया है। अब वे थोड़े नये तरीके से सोचते हैं। उनके मुताबिक 'शिक्षक होने के कारण उनकी जीविका तो आराम से कट जायेगी परंतु बाकि बचे खाली समय का भी सदुपयोग होना चाहिए, अगर आपके अंदर काबिलियत है और समय भी है तो क्यों न इसका उपयोग किया जाये। हम अगर मार्केटिंग क्षेत्र से कुछ सीखते हैं तो उसका उपयोग कर हम निश्चित ही पुराने पथ से नये पथ की ओर जायेंगे और समाज भी लाभान्वित होगा।'
मैने जब पुछा कि मार्केटिंग के नाम पर बहुत सी फर्जी कंपनियां भोले भाले लोगों को अपना शिकार बना रही हैं तो संजय जी ने समझाया कि इसका कारण जानकारी का अभाव है। अगर कोई कंपनी केवल लोगों को सदस्य बनाने पर जोर देती है तो वो निश्चित तौर पर फर्जी है परंतु अगर कंपनी उत्पाद बेचने पर फोकस करती है तो वो फर्जी नहीं हो सकती है, इसलिये जानकारी रखना अनिवार्य है।
बातें करते हुए हम कानपुर पहुंच गए। रेलगाड़ी अब अपने नियत समय से नहीं चल रही थी बल्कि अपने असलियत पर आ गई थी।
इस दौरान टीटीई भी आये। मैन निवेदन किया कि मुगल सराय के बदले कोडरमा तक कर दें तो उन्होंने यह संभव नहीं कहकर मुगलसराय तक फाइन काट लिया कुल 430 रुपये। मेरे लिये परेशानी बढ़ गई, अब मुगल सराय उतरकर फिर से टिकट लेना होगा और दुसरी रेल से जाना पड़ेगा।
यह सब कितना कष्टकारी होता है वो तो इस तरह से सफर करने वाले ही जान पाते हैं। मेरे लिए यह सब बर्दाश्त करना और मुश्किल हो जाता है जब मैं देखता हूँ कि सीट न मिलने की वजह से कोई महिला रात में फर्श पर सोती है (आज मैं भी अखबार बिछाकर बैठ गया) और सीट पर कोई युवक सोया रहता है, मैं युवक को दोषी नहीं ठहरा सकता पर कुछ तो गलत हो रहा होता है। किसी एक जगह के लिए दो लोगों को लड़ते आपने कई बार देखा होगा पर जरा उनकी स्थिति की कल्पना करने की कोशिश कीजिये। आपको समझ में आयेगा कि वे क्यों लड़ना नहीं चाहत हुये भी आपस में उलझ रहे हैं।
 देर हो गई पर शाम तक हमारी रेलगाड़ी इलाहाबाद पहुंच गई। पुल से गंगा जी को प्रणाम किया और हम आगे निकल गये। शाम के वक्त गंगा जी का घाट एक अलग ही दुनिया मालूम पड़ रही थी।

इलाहाबाद में एक गांव का परिवार आकर बैठा। वे प्रसन्न थे, जैसे ग्रामीण प्रसन्न होते हैं बिल्कुल वैसे ही। मैं अपने हिसाब से जोड़-घटाव में व्यस्त हो गया पर मुगल सराय से 5 किमी पहले मेरी सारी प्लानिंग चौपट हो गयी। मैंने सभी को अलविदा कहा और 9:20 में द्वार पर खड़ा हो गया। पर द्वार पर खड़ा होने के बाद रेल वहीं खड़ी हो गयी और बज गये साढ़े दश। पापा से बात करने के बाद इसी रेल में बेटिकट यात्रा करने को राजी हो गया, क्योंकि अब अगर उतरता तो टिकट बेशक खरीद लेता मैं पर रेल नहीं मिलती। आखिर गलती रेलवे की है कि मुझे बेटिकट फर्श पर यात्रा करना पड़ा पर सोचता हूँ अगर टीटीई नहीं समझेगा तो क्या करुंगा? खैर अभी बैठा हूँ और आगे लिखने का इरादा नहीं है।


Saturday, April 28, 2018

देखना और सोचना

वो पूछते हैं कि तुम क्या देखते हो, तुम क्या सोचते हो?
मैं जवाब दे नहीं पाता हूँ और कभी कभार दे देता हूं तो वो स्वीकार नहीं पाते हैं। इसलिए अक्सर चुप रहता हूँ और अब तो स्थिति ऐसी होने लगी है कि कुछ बताना भी चाहूं तो मौन के पहले भी एक बैरियर मिलता है।


मैं क्या देखता हूँ?
कुछ खास नहीं। जो सब देखते हैं, वही मैं भी देखता हूँ। देखने में मनाही थोड़े है। आखों पर जोर नहीं चलता है किसी का। नाक व कान के बाद आंखों का ही तो नंबर आता है। जो भी सामने होता है देखना पड़ता है। ज्यादा देर तक मैं आंखें बंद कर नहीं रह पाता हूँ, बाद में भले पछताता हूँ।
भगवान् ने मुझे कोई अलग थोड़े दृष्टि दी है कि कुछ अलग देखूं। जानता हूँ कि मेरे बताने से पहले भी वो सबने देखी होगी। इसलिए 'मैं क्या देखता हूँ' का उत्तर और अधिक सरल हो जाता है। सरलता पर कोई ध्यान भी तो नहीं देता है तो बताने का कोई फायदा भी नहीं।

मैं क्या सोचता हूँ?
सोचता था आज से पांच-दस साल पहले, अब तो बस..... । कुछ कह नहीं सकता। कहने लायक कुछ खास नहीं है पर अलग जरुर है क्योंकि सब अलग अलग से सोचते हैं। एक नहीं बल्कि अनगिनत बातें सोचता हूँ। कुछ ऐसी और कुछ वैसी।कुछ सुंदर तो कुछ गंदे।खैर गंदगी को वहीं छोड़कर मैं बाकि बताने की कोशिश करता हूं। भविष्य के बारे में सोचता हूँ। कभी भविष्य में खो जाता हूँ तो भूत मुझे याद दिलाता है कि मैं कुछ गलत सैच रहा हूँ। कभी बीती बातों को जगह देता हूं तो उसपर हजार और विचार निकलते हैं। सोचना सबसे आसान काम लगता है पर कोई कह दे कि ये सोच कर बताना तो सच कहता हूँ आज तक नही बता पाया हूँ। मैं क्या सोच भी सकता हूँ, वही घर परिवार और वही समाज की बातें।मैं देश के बारे में नहीं सोच पाता हूँ पर मिट्टी को भूल भी नहीं पाता हूँ। पेड़ पौधे और आकाश, ये सब सोचने में शामिल होते हैं पर चिड़ियों की कलरव(आजकल बहुत कम सुनने को मिलता है) और गिलहरी का लगातार बोलना मेरे सोचने की दिशा बदलने में मदद करती है। मैं अपने भाई बहनों के बारे में सोचता हूँ, जिनसे नहीं मिल पाया हूँ उनके बारे में सोचता हूँ। उनके खेलों के बारे में सोचता हूँ और पढाई-लिखाई के बारे में। सोचता हूँ कि मैं कौन होता हूँ उनके बारे में सोचने वाला पर ' मुझसे तेरा मोह न छूटे दिल ने बनाये कितने बहाने' वाला हाल है।प्लास्टिक खाती पवित्र गौओं के बारे में सोचता हूँ। हरे भरे खेतों के बारे में सोचता हूँ। आम के बाग में घूमने को सोचता हूँ। नदी में फैलती गंदगी के बारे में सोचता हूँ। इंसानों के मन में बैठती गंदगी को भी समय देता हूँ पर ये सब उस लिस्ट का शून्य भी नहीं है। भगवान के बारे में सोचने को कह गये हैं हमारे पूर्वज पर मैं उतना भाग्यशाली भी तो नहीं।

Friday, March 23, 2018

कृषि उन्नति मेला 2018 : मेरा अनुभव


जब भी कृषि से सम्बंधित कुछ भी लिखना चाहता हूँ तो पहली पंक्ति में स्वतः ही लिखा जाता है - "भारत किसानों का देश है, यहाँ की 60% से अधिक जनसँख्या कृषि और कृषि आधारित कार्यों में लगी हुई है।" जब से कृषि उन्नति मेला घूमकर आया हूँ कई बार उसके बारे में लिखने को बैठा पर इन दो पंक्तियों के आगे कुछ लिखने का मन ही नहीं हुआ या कहुँ कि लिख न सका।
कौन नहीं जानता है कि भारत गांवों देश है? सुमित्रानन्दन पंत जी ने ऐसे ही तो नहीं लिखा होगा - 
"भारत माता ग्रामवासिनी। खेतों में फैला है श्यामल...  " और गांवों में ही खेत-खलिहान होता है, न कि शहरों में। शहरों में तो बस पूछिए मत क्या-क्या होता है? खैर छोड़िये इसे आगे लिखता हूँ, खेत और खलिहान में जो पसीना बहता है उसे हम किसान कहते है और किसानों की कहानी लिखना मुझे बहुत पसंद है।
यहाँ मैं बताने जा रहा हूँ नयी दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान में हाल ही में हुए "कृषि उन्नति मेला" की। यह 16 से 18 मार्च तक चला। मैंने तीनों दिन जाने का जाने का फैसला किया था पर किसी कारणवश 16 को न जाकर 17 को गया और 18 को भी नहीं जा पाया क्योंकि उस दिन मुझे एक कांफ्रेंस में जाना था। लगभग बारह बजे मैं राजेंद्र प्लेस मेट्रो स्टेशन पंहुचा, वहीँ दरवाजे के बाहर ही बहुत सारी ई-रिक्शा वाले कृषि मेला स्थल तक ले जाने को तैयार थे। मैं बैठा और कुछ ही मिनट में सीधा संस्थान के मुख्य दरवाजे पर। मेरा मन उत्साहित था क्योंकि मैं पहली बार कृषि मेले में जो पहुंचने वाला था। स्कूली दिनों में जब अख़बार में विज्ञापन देखता था कि कृषि मेला लगने वाला है तो मेरा बालमन भी करता था -घूम आऊं, पर घूमता कैसे? मेला का आयोजन होता था दिल्ली और पटना जैसे शहरों में। मन में प्रश्न उठता कि किसान मेला किसानों के लिए होता है तो ये बड़े शहरों में क्यों आयोजित किये जाते है ? पर उत्तर कौन देता ,खैर अभी तक कोई सटीक उत्तर नहीं मिला है। तो भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान का बड़ा दरवाजा और दरवाजे के ऊपर लगे बड़े पोस्टर देखकर मैं अंदर जाने लगा।
 संस्थान काफी बड़ा है ऐसा सोच ही रहा था कि ध्यान सामने से आते झक सफ़ेद लुंगी और शर्ट पहने किसानो के एक समूह पर गया। शायद वे तमिलनाडु के किसान थे। कुछ महिलाएं हाथों में पोस्टर लेकर बातें करती चली आ रही थी। चेहरे से साफ झलक रहा था कि उनकी बातों के मुख्य बिंदु मेला ही है। काली और चौड़ी सड़कों पर आगे बढ़ते हुए "राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (NPL)" का कैंपस भी दिखा। धुप बहुत था, लग रहा था जैसे जून की गर्मी हो पर फिर भी हरा-भरा यह संस्थान हमें छाँव दे रहा था। चलते-चलते ध्यान आया कि काफी दूर(लगभग एक किलोमीटर) और जाना है,मुख्य दरवाजे से मेला स्थल तक ले जाने के लिए आयोजकों की तरफ से कोई परिवहन सुविधा नहीं थी जबकि आमतौर पर इस तरह के आयोजनों में बस चलाये जाते है। महँगी-महंगी गाड़ियों में बैठ बहुत से लोगों को मेला स्थल जाते हुए देख मन में प्रश्न उठा कि आखिर किन कारणों से सुविधा नहीं दी गयी? क्या किसानो को पैदल चलना है ही , ऐसा सोचकर बस नहीं चलाये गए?कम से कम बुजुर्गों और महिलाओं के लिए तो करना चाहिए था। मन खिन्न हो उठा मेला स्थल के पास सैकड़ों चमकदार गाड़ियों को पार्किंग में देखकर। किसान इस बात से कम चिंतित थे कि उनके साथ ऐसा बर्ताव किया गया बल्कि वे अपने ही धुन में मेला में लगे विभिन्न स्टालों की बातें कर रहे थे। 


आखिर इतना चलने के बाद मैं अंदर प्रवेश कर गया। बेतहाशा भीड़ देखकर मुझे अंदाजा हुआ कि मेला में क्या मिल सकता है। बड़े-बड़े प्लास्टिक के बने हुए पंडाल (टेंट) और पंडाल के दरवाजे शीशे के देखकर मुझे हैरानी नहीं हुई, सभी पंडाल वातानुकूलित थे और पंडालों के ऊपर कई चेहरे बने हुए थे जैसा की किसान चैनल में दिखाया जाता है।
मैं एक में गया फिर दूसरे में और फिर तीसरे,चौथे पांचवे में। सबकी अपनी-अपनी कहानी और अपने मुद्दे। एक पंडाल जो डेरी को समर्पित था उसमे नाबार्ड के स्टाल पर गया मैं। कई जानकारियां दी जा रही थी वहां पर ,कई उत्सुक किसान सुन रहे थे। हमारे कुछ प्रश्नों का उत्तर अधिकारियो ने बड़े उत्साह से दिया , साथ ही नाबार्ड द्वारा चलाये जा रहे योजनाओं की जानकारी भी दी।बगल वाले स्टॉल पर कोई महाराष्ट्र की प्राइवेट कंपनी अपने उत्पादों का प्रचार कर रही थी और उसके अगले स्टॉल पर पंजाब से आया एक किसान लस्सी बेच रहा था, काफी भीड़ थी।मैंने सोचा कैसा होता है  पंजाबी लस्सी और एक गिलास खरीद मैं पी गया। बड़ा स्वादिष्ट था, मैं किसान को बता नहीं पाया क्योंकि वह बेचने और पैसे गिनने में व्यस्त था। उसके चेहरे पर ख़ुशी थी। मैं वो ख़ुशी सभी किसानों के चेहरे पर देखना चाहता हूँ। अगले स्टॉल पर एक कंपनी डेरी में प्रयोग किये जाने वाली कई मशीनों को प्रदर्शित कर रही थी। मैं बाहर से देखकर आगे बढ़ गया। एक स्टॉल में भेड़ और बकरी के दूध की जानकारी पोस्टर पर डाली गयी थी। एक अन्य स्टॉल में भारत के विभिन्न दुधारू गायों के नस्लों के बारे में जानकारी दी हुई थी। 





पंडाल से निकलकर मैं खाली मैदान की और बढ़ा,वहां सबसे अधिक भीड़ थी। मैदान के एक हिस्से में नाना प्रकार के सब्जियां लगी हुई थी और कुछ फूल भी।कह सकता हूँ कि छोटा सा खेत था वह पर दर्शकों को अपनी और खींच रहा था।




युवराज 
 दूसरे हिस्से में देश के विभिन्न क्षेत्रों से आये जानवरों की प्रदर्शनी। मुझे याद आया कि प्रसिद्द मुर्राह भैसा 'युवराज' भी आया होगा, मैंने केवल टेलीविज़न पर उसे देखा था। मेरी चाल तेज हो गयी, वहां पहुचकर देखा कई बड़े-बड़े भैसे खड़े थे और चारो और से लोग भीड़ लगाए हुए थे।





भैसों के बारे में क्या लिखूं ? दो आदमी उनकी सेवा में लगातार लगे हुए थे -एक पंखा झल रहा था तो दूसरा उसके चमकदार काले शरीर सहला रहा था। मुझे ताज्जुब हुआ कि इतना हल्ला और भीड़ में ये शांत है, कहीं बेकाबू हुए तो कोई भी पंडाल खड़ा नहीं दिखेगा परन्तु शायद उनके अनुभवों ने उन्हें सीखा दिया था कि वे अब देश के सेलब्रिटी सितारे है। गांव का कोई आवारा पशु नहीं। 



 
मैंने सामने नज़र घुमाई तो एक छोटा तालाब था जिसमे दर्जन भर बतख तैर रहे थे ,उन्हें कोई देखने वाला नहीं था -वे अपने ही मस्ती में थे। थोड़ा आगे गया और कई सारी बकरियों को देखा, जमुनापरी के अलावा कोई और नाम ध्यान में नहीं है इस वक़्त। अंत वाले दो घेरों में ऊंट थे, एक शायद ऊंटनी थी और साथ में एक ऊंटनी का बच्चा भी। हल्का काला रंग का बच्चा शांति से बैठा हुआ था, मैंने पहली बार ऊंट का बच्चा देखा था। बड़ी देर तक देखता रहा।


इसके बाद मैं आगे बढ़ा नए ज़माने के तकनीक देखने, इसमें ट्रेक्टर से लेकर हार्वेस्टर तक और ड्रिप सिचाईं से लेकर ड्रोन तक के स्टॉल थे। बहुत से प्राइवेट कंपनियां अपने-अपने मशीनों के बारे में लोगों को समझा रहे थे। मछली पालन हेतु उपयोग में आने वाली नयी मशीनों के बारे में जानने के लिए मैं थोड़ी देर रुका। मैं बढ़ता जा रहा था क्योंकि मुझे घर जल्दी आना था।लगभग चार बज चुके थे और मैंने आधा मेला ही घुमा था अभी तक, कुछ पंडालों में तो मैं जा ही नहीं पाया। मुझे लगा कि अगर पूरा मेला घूमना हो तो कम से कम दो दिन लग ही जायेगा मुझे। एक पंडाल में कृषि से सम्बंधित विशेषज्ञ किसी विषय पर चर्चा में तल्लीन थे और एक खाली पंडाल में बहुत से लोग सोये हुए भी थे। शायद वे थके हुए थे और आराम करने के लिए उन्हें इससे अच्छी जगह कहाँ मिलती।

डेरी की मशीने 

ट्रेक्टर के साथ फोटो 
 मैं चाह रहा हूँ और लिखूं पर अब मन नहीं है। कृषि मेला की अच्छी-बुरी यादों का कुछ हिस्सा यहाँ लिखा है और बहुत कुछ अनकहा रह गया है। कुछ और तस्वीरें डाल रहा हूँ। चाहे समाज में जितनी भी समस्याएं हो पर खेत में जाते ही सब भूलकर बस यही गीत मन में आता है ' धरती सुनहरी, अम्बर नीला। ..... '






( मेरा यह लेख प्रसिद्द ऑनलाइन हिंदी पत्रिका 'रचनाकार' में छपा हैं। लिंक- http://www.rachanakar.org/2018/04/114.html 



Monday, February 26, 2018

मन की यात्रा: आनंद विहार से कोडरमा


भारतीय रेल में यात्रा कर रहा हूं। आनंद विहार से गाड़ी खुली और कानपुर से आगे सरपट दौड़े जा रही है।RAC सीट है और सहयात्री एक बुजुर्ग हैं, आराम से बैठे हैं ध्यानमग्न।मैं कभी मोबाइल फोन देख रहा हूं तो कभी खिड़कियों से बाहर। खिड़कियां हमेशा ही अच्छी होती है और यह तो रेलगाड़ी की खिड़की है।
कुछ तस्वीरें खींच लिया बैठे-बैठे,आखिर फोटोग्राफर बनने का इससे अच्छा अवसर  कहाँ मिलेगा मुझे?
कहीं-कहीं नयी पटरियां बिछाई जा रही है, इसलिए बड़ी-बड़ी मशीनें काम पर लगी है जो कि सुंदर दृश्य को खराब कर रही है

प्रकृति ने कितनी सुंदर रचना की है और दुसरी तरफ इंसान है जो सोचता है कि उससे अच्छा कोइ बना ही नहीं सकता। यह भूल जल्द न सुधारा गया तो हम सबकुछ खो बैठेंगे, न खिड़कियों के पास बैठने का दिल करेगा और न तस्वीरें खींचने का।
ट्रेन में तरह तरह के लोग सफर करते हैं पर जो सफर नहीं करते हैं फिर भी ट्रेन में होते हैं, उनका उस स्थिति में होना मुझे किसी और से नहीं तो कम से कम स्वयं से प्रश्न करने के लिए विवश करता है।उत्तर शायद ही कभी मिलता है
कोई व्यक्ति बोगियों की साफ-सफाई कर जाये और बदले में आपसे 1-2 रु. मांगे, इसपर अलग-अलग राय है पर प्रश्न है। प्रश्न है रोजगार का।

आप इसपर सोच ही रहे होते हैं कि अचानक सामने कोई छोटी सी फुल जैसी बच्ची आपके सामने हाथ आगे कर देती है , तब मैं सिहर उठता हूं। मैं क्या दे सकता हूँ उसे? मैं तो स्वंय भिखारी हूँ, यह विचार कौंध जाता है मन में पर फिर औरो को सिक्के देता देख मैं भी उसके छोटे-छोटे हाथों में सिक्का रख देता हूँ।
पता नहीं कब आख लग गयी थी, अभी पापा का फोन आया तो नींद टुटी।
हमारी ट्रेन इलाहाबाद पहुचने वाली है। सुबेदारगंज का यह छोटा हाॅल्ट मुझे अन्य हाॅल्ट जैसा ही लगा। शांत और साफ। आसमान में उड़ता कौआ मुझे बता गया कि तुम घर पहुंचने ही वाले हो।इलाहाबाद में ट्रेन कुछ मिनट रुकी, कुछ लोग उतर गये क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी मंजिल आ गयी है और कुछ नये चेहरे दिखे। इस बीच ट्रेन खुल गयी।

मैंने अपने थैले में हाथ डाला कुछ खाने की चीज निकालने के लिए जिसे मेरे भाई ने रखा था।
लिखना नहीं चाह रहा हूँ पर ट्रेन यात्रा के दौरान सबसे अधिक बुरा तब लगता है जब आप कुछ खा रहे हों और खिड़की से एक दुर्गंध आपके नथूनों और मुंह में प्रवेश कर जाये। यह दुर्गंध भी खास तरह का होता है और पटरियों के आसपास ही सुंघने को मिलता है या कहें महसूस होता है कि प्रकृति ने साफ हवा न दी होती तो क्या हम जी पाते, क्या हम वो सब कर पाते जो अभी कर रहे हैं।
यह जानते हुए कि जिस ट्रेन पर मैं यात्रा कर रहा हूँ उसकी वजह से न जाने कितने ही मासूम जीवों की हत्या हुई है, मैं कुछ नहीं कर सकता। कुत्ते, बिल्लियां, जंगली पशु कट जाते हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहना तो यह चाहता हूँ कि रेल चलाने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम बेजुबान जीवों को रौंदते हुये आगे बढें परंतु सोचता हूँ मानवों में अब इतनी मानवता भी नहीं कि यह सुनकर आसुं आ जाये। वह धैर्य भी नहीं है और वह करुणा भी जो इस हाड़-मांस के शरीर को मानव बनाता है। वर्ना ऐसा क्यों होता कि हत्या करने के बाद भी ट्रेन रुके नहीं और आगे बढ जाये।
शाम हो चुकी है, रेलगाड़ी भी अब धीरे-धीरे चल रही है और हवा भी मंद बह रही है। खिड़कियों से देख रहा हूँ कि खेतों में सरसों लगे हैं। सुंदर, बहुत सुंदर दृश्य पर मन इतना चंचल है कि यहाँ भी नहीं ठहरना चाहता। सोचता हूँ कि 'भारतमाता ग्रामवासिनी' कविता में जिन खेतों का वर्णन है कहीं ये तो नहीं थे। खैर ट्रेन आगे बढी और मन भी वास्तविक दुनिया से उबकर आभासी दुनिया में आने को मचल उठा। लेखन को विराम देना उचित समझा। गाड़ी कोडरमा सुबह 3 बजे तक पहुचेगी।
(यह अनुभव ट्विटर पर ट्विट के रुप में है जिसे यहां संकलित कर दिया गया, कुछ जोड़-तोड़ के बाद)

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