एक समय था जब कुछ भी कहीं भी हो रहा होता तो मन में भाव रहता था कि ये हमारे लिए क्यों नहीं है ? क्या इसलिए कि हम गांव में जीवन जी रहे है या इसलिए कि हम भूगोल के हिसाब से एक बीमारू राज्य में पैदा हुए है या इसलिए कि हमारी आर्थिक स्थिति केवल हमें खाने का प्रबंध करने की अनुमति देती है या इसलिए विश्व के कुछ लोगों को ही इसका हक़ है, हमें नहीं। बहुत बार इंसान और इंसान में भेद करना पड़ा। एक शहरी इंसान और एक ग्रामीण , एक प्रभावशाली परिवार/समाज में पैदा इंसान और एक अनजान माँ की गोद में जन्मा इंसान। वहीँ दूसरी तरफ हिंसा और हक़ को एक होते देख रहा था जीवनशैली में कुछ भी ऐसा नहीं दिखता था जिसे हम अपना कह सकते थे सब कुछ दुहराया हुआ दीखता था यहाँ तक की कपडे भी किसी ने पहले पहन रखे होते थे(बाद में यह भी समझ आया कि केवल कपडे नहीं होते है नए बल्कि डिज़ाइन भी नयी होती जिसे एक खास वर्ग के लोग ही पहली बार पहनते हैं बाद में लोग जैसे किसी का जूठा खाने को मजबूर होते हैं वैसे ही हमें कपडे पहनने को मजबूर होना पड़ता था ) हम स्वावलम्बी थे पर किस के लिए कब क्या कर रहे थे ये सोच सकने की क्षमता भी जाती दिख रही थी। जब अख़बार में दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, पटना, बेंगलुरु आदि शहरों में हो रहे किसी समारोह में विश्व के हमउम्र लोगो को शामिल होने की ख़बरें पढता तो मन कचोटने लगता था। ओलिंपिक, कामनवेल्थ या अन्य राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय खेल आयोजनों में अपने आसपास से किसी का न होना न केवल हमारे अंदर हीन भावना भरने को काफी था बल्कि राजनीती और अन्य केंद्रों में अपनी कमजोर मौजूदगी का एहसास कराता था। एकाध लोग किसी में विधा में कुछ अच्छा कर रहे थे तो लगता था कि १०० करोड़ जनसँख्या में ९५ करोड़ लोग हम जैसे हैं उसमे एकाध अगर कुछ कर रहा है तो बाकी कहाँ हैं? अगर खेती में हैं तो फिर वो रो क्यों रहे है कि हमारा बस नहीं चलता है। वह समय था जब छोटी छोटी चीजे मन को सोचने पर विवश करती थी और साथ ही प्रेरित भी करती थी कि जो भी हो यह एडजस्टमेंट से बनी सिस्टम में हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया गया है तो हमें खुद कुछ करना चाहिए। वह समय भी गुजरा जब खुद के इतिहास और गर्व से जुड़ा और पाया कि लाखों किताबों में ताजमहल/लोटस टेम्पल आदि के बारे में बता दिया गया है पर हमारे घर और गांव के इतिहास के बारे में कोई नहीं बता रहा है हम क्यों अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय विदेशियों पर खर्च करें और खुद पर काम न करें। हमारे जितने भी सरकारी योजनाएं सब में शरण खोजा हमने, जो कहते थे कि हम जनता के लिए हैं वो शोषण करने की मशीनरी के अलावा कुछ नहीं साबित हुई, लोकतंत्र लोगों के द्वारा शाषन जरूर था पर हमारे अपने लोग भी विदेशियों के साथ रहकर एक नया वर्ग बना लेते थे। अधिकारिओं को क्या नहीं मालूम था कि लोगों को एक पुस्तकालय की जरूरत है और क्या हर चीज को कुर्सी तोड़कर ही माँगा जा सकता है इस लोकतंत्र में ? लेकिन नहीं। कहीं न कहीं तो कुछ गड़बड़ी थी। कुछ तो था जो इंसान को इंसान से अलग करने के लिए काम कर रहा था और अभी कर रहा है। आगे की यात्रा में ये समझा कि ये टीस केवल हमारे मन में नहीं है बल्कि कुछ समय के अंतराल पर उन सबके मन में पैदा होती थी जो इसके शिकार होते थे। कुछ लोगों ने सुधार किया और कुछ इलाके इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने में सफल रहे लेकिन फिर नयी पीढ़ी और बहुत से बातें। खैर जब लगने लगा कि अब कोई हमारे लिए कुछ नहीं करने वाला तो पहला कदम बढ़ा दिया हमने। एक से दो और दो से तीन करके हम लम्बी दुरी को तय करने निकल पड़े।
०००
प्र ० लम्बी दुरी तय करने के लिए क्या करना होता है ?
राही ० रास्ते पर चलने की तैयारी करनी होती है।
प्र ० क्या यह काफी होता है या तुम प्रश्न फिर से सुनना चाहते हो ?
राही ० मुझे लगता है कि मैं प्रश्न सुन चुका हूँ पर आप उत्तर नहीं समझ पाए।
प्र ० अगर ऐसा है तो फिर कोशिश करो।
राही ० जहाँ पहुंचना है उसके बारे में और बात करें ?
प्र ० लेकिन प्रश्न तो था कि लम्बी दुरी तय करने के लिए क्या करना होता है ?
राही ० अच्छा हाँ, मैं अक्सर खो जाता हूँ पर मैं कोशिश करता हूँ उत्तर देने की।
प्र ० क्या उत्तर देना और उत्तर देने की कोशिश करना एक है ?
राही ० नहीं या शायद हाँ , पता नहीं
प्र ० अगर ऐसा है तो कोशिश क्यों कर रहे हो ? उत्तर दो।
राही ० ठीक है लम्बी दुरी तय करने के लिए निकलना होता , मुझे नहीं मालूम पर कही से तो निकलना होता है चलने के लिए।
हम 'अब्दुल कलाम लाइब्रेरी रजौली' के साथ सफर में कहाँ तक पहुंचे? इस पर जब मैं लिखने बैठा तो मन में ऊपर लिखे विचार उठे। एक प्रश्न कर रहा है और एक राही बन उत्तर देने की कोशिश में है, नहीं उत्तर दे रहा है। 2020 में जब लाइब्रेरी को हमलोग मूर्त रूप दिए थे तो एक ड्राफ्ट लिखा था जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है :- https://prashantsamajik.blogspot.com/2020/07/blog-post_22.html
06 अगस्त को जब दुनिया में पहली बार पर परमाणु बम गिराया गया और मानवों के साथ साथ मानवों की संवेदनाएं भी मर गई थी हमने पहली बार रजौली में प्रेम और भाव भरा आयोजन किया जिसका नाम दिया हमने : पोएट्री क्लब - अब्दुल कलाम लाइब्रेरी। लाइब्रेरी में पुस्तकों के साथ हमने बहुत से प्रयोग किये फिर हमने लाइब्रेरी के जरिये क्षेत्र के नाना प्रकार के अभिरुचियों और क्षमताओं को जाहिर करने का निर्णय लिया। पहले लाइब्रेरी को एक सेफ स्पेस में ढालना था फिर अन्य गतिविधियों के लिए राह बनानी थी और फिर वो सब शुरू करना था जो देश दुनिया में हो रहा है। हमने कोडिंग सिखाने का फैसला किया,स्थानीय पंक्षियों और सरीसृपों की जानकारी के लिए विशेषज्ञ बुलाना शुरू किया,सांस्कृतिक और रंगारंग कार्यक्रम से आगे बढ़कर स्वयं संगीत के विधाओं को सिखने लगे , साइकिलिंग और ट्रैकिंग के लिए तयारी शुरू की , पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज की बातों को जन जन तक पहुंचाने के लिए #GreenLungsMovement को और विस्तृत रुपरेखा दी, प्रेम और शांति पर बातें करनी शुरू की। कविता के जरिये ह्रदय तक पहुंचने का मार्ग ढूंढने के लिए पोएट्री क्लब की शुरुआत परसो की गई।
पोएट्री क्लब के दौरान कुछ महसूस किया था :
जो पहली बार हुआ
वो सदियों से होता चला आ रहा है।
किसी ने पहली बार लिखी हो कविता
ऐसा कहना थोड़ा मुश्किल है मेरे लिए
वर्षों पहले जब शब्द का ज्ञान न था
तब भी मनुष्य का हृदय
कविता बन लिया करता था।
जो आज हो रहा है
वो कुछ नया सा लग रहा है
पर थोड़ा शांत होने से महसूस करता हूँ
कि कुछ समय पहले ही
कुछ महिलाओं ने
जीवन के लय को कविता के रूप में ढाला होगा
कहाँ ?
हाँ , इसी रजौली में
जहाँ आजकल इस्क्के दुक्के लोग कविता पढ़ते हैं।
कुछ पुरुषों ने बैलों के साथ मिलकर रचा होगा
एक बेहतरीन कविता
कहाँ ?
इसी भूमि के धान के खेतों में।
इसलिए जो पहली बार हो रहा है ,
शायद हर बार हो चूका है।
#prashantsamajik
तो अब हम जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं और सबसे अच्छी बात ये है कि हम वो सब कर रहे हैं जो देश दुनिया में हो रहा है, जो हमारे लिए जरुरी है , जीवन आगे बढ़ेगा और हमारा मन धनार्जय की पानी की तरह साफ हो जायेगा।