एक रात जब चाँद जगा था
और गांव के छोर पर कुछ पिल्ले सोने की कोशिश में थे
मैंने एकाएक आँखों से आंसुओ को बहते हुए पाया।
पाया कि पूरा मानव जाति (अगर मैं गलत हूँ तो भी )
दूसरे को बताने में तल्लीन है या रहना चाहता है समझाने में व्यस्त।
जो ऐसा नहीं कर पा रहे हैं वो ढोंग करते हैं समझने का
क्यूंकि मुझे लगा (अगर मैं गलत हूँ तो भी )
कि समझाना मानव के लिए एक क्रिया है
और समझना मात्र एक पदवी है, समझौता है,
हार है, मज़बूरी है, दिखावा है।
उसी रात जब माँ सोने जा रही थी
वह एक लोटा गरम पानी लेकर आई
पास में पागुर कर रही गाय ने एक क्षण को देखा।
महसूस हुआ कि मेरे गाल से होकर गले तक आ रही
गर्म आंसुओ की लड़ी ठण्डी हो गई थी।
मैंने स्वयं को दोषी पाया -
अत्याचार (अगर यह सही शब्द है तो ) का।
मानव ने पहले स्वयं पर किया या दूसरों पर
यह मालूम नहीं किन्तु
अत्याचार मानव के अलावा कोई करता भी है तो
दोषी तो नहीं कहलाता है।
और न ही रोता है,प्रायश्चित व पश्चाताप करता है,
न ही पागल हो बेतहासा हसता है।
मुझे नहीं लगता है कि क्षमा के अलावा
कोई और सजा का तरीका ढूंढा हो
हुए अत्याचार के लिए , मानवों की दुनिया के अलावा।
एक रात जब ठण्ड घटने को तैयार न थी
कबूतरी अपने बच्चे को चारो ओर से घेरे जा रही थी
यह कामना लेकर कि काश
वो इस रात के लिए कम्बल बन पाती।
मैंने रोना बेहतर समझा किसी को कुछ बताने के अलावा।
मैं रोया यह जानकर कि कहीं दूर
एक सांप को न रोना पड़े मानवों के हाथ में डंडा देखकर।
किसी ज़माने में जब एक आदिमानव से उसकी मित्रता
इतनी घनिष्ट हुई होगी कि वह उसके शादी में गया होगा
गले में लपटा हुआ और तब से अब तक
वह उस दोस्ती को पहले देख लेता है
मानव के ठन्डे हो चुके दिल को देखने से पहले।
उस पर पड़ती डंडे की आखिरी चोट बताती है
कि विश्वासघात का अविष्कार भी मानव ने किया है।
एक रात जब उल्लू को ग़लतफ़हमी हुई
कि सब सो चुके हैं, अब उड़ चलते हैं
किसी दूसरे पेड़ के लिए,
मेरी आँखों में पानी सूख चूका था।
प्रशांत