जब भी कृषि से सम्बंधित कुछ भी लिखना चाहता हूँ तो पहली पंक्ति में स्वतः ही लिखा जाता है - "भारत किसानों का देश है, यहाँ की 60% से अधिक जनसँख्या कृषि और कृषि आधारित कार्यों में लगी हुई है।" जब से कृषि उन्नति मेला घूमकर आया हूँ कई बार उसके बारे में लिखने को बैठा पर इन दो पंक्तियों के आगे कुछ लिखने का मन ही नहीं हुआ या कहुँ कि लिख न सका।
"भारत माता ग्रामवासिनी। खेतों में फैला है श्यामल... " और गांवों में ही खेत-खलिहान होता है, न कि शहरों में। शहरों में तो बस पूछिए मत क्या-क्या होता है? खैर छोड़िये इसे आगे लिखता हूँ, खेत और खलिहान में जो पसीना बहता है उसे हम किसान कहते है और किसानों की कहानी लिखना मुझे बहुत पसंद है।
यहाँ मैं बताने जा रहा हूँ नयी दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान में हाल ही में हुए "कृषि उन्नति मेला" की। यह 16 से 18 मार्च तक चला। मैंने तीनों दिन जाने का जाने का फैसला किया था पर किसी कारणवश 16 को न जाकर 17 को गया और 18 को भी नहीं जा पाया क्योंकि उस दिन मुझे एक कांफ्रेंस में जाना था। लगभग बारह बजे मैं राजेंद्र प्लेस मेट्रो स्टेशन पंहुचा, वहीँ दरवाजे के बाहर ही बहुत सारी ई-रिक्शा वाले कृषि मेला स्थल तक ले जाने को तैयार थे। मैं बैठा और कुछ ही मिनट में सीधा संस्थान के मुख्य दरवाजे पर। मेरा मन उत्साहित था क्योंकि मैं पहली बार कृषि मेले में जो पहुंचने वाला था। स्कूली दिनों में जब अख़बार में विज्ञापन देखता था कि कृषि मेला लगने वाला है तो मेरा बालमन भी करता था -घूम आऊं, पर घूमता कैसे? मेला का आयोजन होता था दिल्ली और पटना जैसे शहरों में। मन में प्रश्न उठता कि किसान मेला किसानों के लिए होता है तो ये बड़े शहरों में क्यों आयोजित किये जाते है ? पर उत्तर कौन देता ,खैर अभी तक कोई सटीक उत्तर नहीं मिला है। तो भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान का बड़ा दरवाजा और दरवाजे के ऊपर लगे बड़े पोस्टर देखकर मैं अंदर जाने लगा।संस्थान काफी बड़ा है ऐसा सोच ही रहा था कि ध्यान सामने से आते झक सफ़ेद लुंगी और शर्ट पहने किसानो के एक समूह पर गया। शायद वे तमिलनाडु के किसान थे। कुछ महिलाएं हाथों में पोस्टर लेकर बातें करती चली आ रही थी। चेहरे से साफ झलक रहा था कि उनकी बातों के मुख्य बिंदु मेला ही है। काली और चौड़ी सड़कों पर आगे बढ़ते हुए "राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (NPL)" का कैंपस भी दिखा। धुप बहुत था, लग रहा था जैसे जून की गर्मी हो पर फिर भी हरा-भरा यह संस्थान हमें छाँव दे रहा था। चलते-चलते ध्यान आया कि काफी दूर(लगभग एक किलोमीटर) और जाना है,मुख्य दरवाजे से मेला स्थल तक ले जाने के लिए आयोजकों की तरफ से कोई परिवहन सुविधा नहीं थी जबकि आमतौर पर इस तरह के आयोजनों में बस चलाये जाते है। महँगी-महंगी गाड़ियों में बैठ बहुत से लोगों को मेला स्थल जाते हुए देख मन में प्रश्न उठा कि आखिर किन कारणों से सुविधा नहीं दी गयी? क्या किसानो को पैदल चलना है ही , ऐसा सोचकर बस नहीं चलाये गए?कम से कम बुजुर्गों और महिलाओं के लिए तो करना चाहिए था। मन खिन्न हो उठा मेला स्थल के पास सैकड़ों चमकदार गाड़ियों को पार्किंग में देखकर। किसान इस बात से कम चिंतित थे कि उनके साथ ऐसा बर्ताव किया गया बल्कि वे अपने ही धुन में मेला में लगे विभिन्न स्टालों की बातें कर रहे थे।

आखिर इतना चलने के बाद मैं अंदर प्रवेश कर गया। बेतहाशा भीड़ देखकर मुझे अंदाजा हुआ कि मेला में क्या मिल सकता है। बड़े-बड़े प्लास्टिक के बने हुए पंडाल (टेंट) और पंडाल के दरवाजे शीशे के देखकर मुझे हैरानी नहीं हुई, सभी पंडाल वातानुकूलित थे और पंडालों के ऊपर कई चेहरे बने हुए थे जैसा की किसान चैनल में दिखाया जाता है।
मैं एक में गया फिर दूसरे में और फिर तीसरे,चौथे पांचवे में। सबकी अपनी-अपनी कहानी और अपने मुद्दे। एक पंडाल जो डेरी को समर्पित था उसमे नाबार्ड के स्टाल पर गया मैं। कई जानकारियां दी जा रही थी वहां पर ,कई उत्सुक किसान सुन रहे थे। हमारे कुछ प्रश्नों का उत्तर अधिकारियो ने बड़े उत्साह से दिया , साथ ही नाबार्ड द्वारा चलाये जा रहे योजनाओं की जानकारी भी दी।बगल वाले स्टॉल पर कोई महाराष्ट्र की प्राइवेट कंपनी अपने उत्पादों का प्रचार कर रही थी और उसके अगले स्टॉल पर पंजाब से आया एक किसान लस्सी बेच रहा था, काफी भीड़ थी।मैंने सोचा कैसा होता है पंजाबी लस्सी और एक गिलास खरीद मैं पी गया। बड़ा स्वादिष्ट था, मैं किसान को बता नहीं पाया क्योंकि वह बेचने और पैसे गिनने में व्यस्त था। उसके चेहरे पर ख़ुशी थी। मैं वो ख़ुशी सभी किसानों के चेहरे पर देखना चाहता हूँ। अगले स्टॉल पर एक कंपनी डेरी में प्रयोग किये जाने वाली कई मशीनों को प्रदर्शित कर रही थी। मैं बाहर से देखकर आगे बढ़ गया। एक स्टॉल में भेड़ और बकरी के दूध की जानकारी पोस्टर पर डाली गयी थी। एक अन्य स्टॉल में भारत के विभिन्न दुधारू गायों के नस्लों के बारे में जानकारी दी हुई थी। 
पंडाल से निकलकर मैं खाली मैदान की और बढ़ा,वहां सबसे अधिक भीड़ थी। मैदान के एक हिस्से में नाना प्रकार के सब्जियां लगी हुई थी और कुछ फूल भी।कह सकता हूँ कि छोटा सा खेत था वह पर दर्शकों को अपनी और खींच रहा था।
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युवराज |
भैसों के बारे में क्या लिखूं ? दो आदमी उनकी सेवा में लगातार लगे हुए थे -एक पंखा झल रहा था तो दूसरा उसके चमकदार काले शरीर सहला रहा था। मुझे ताज्जुब हुआ कि इतना हल्ला और भीड़ में ये शांत है, कहीं बेकाबू हुए तो कोई भी पंडाल खड़ा नहीं दिखेगा परन्तु शायद उनके अनुभवों ने उन्हें सीखा दिया था कि वे अब देश के सेलब्रिटी सितारे है। गांव का कोई आवारा पशु नहीं।




इसके बाद मैं आगे बढ़ा नए ज़माने के तकनीक देखने, इसमें ट्रेक्टर से लेकर हार्वेस्टर तक और ड्रिप सिचाईं से लेकर ड्रोन तक के स्टॉल थे। बहुत से प्राइवेट कंपनियां अपने-अपने मशीनों के बारे में लोगों को समझा रहे थे। मछली पालन हेतु उपयोग में आने वाली नयी मशीनों के बारे में जानने के लिए मैं थोड़ी देर रुका। मैं बढ़ता जा रहा था क्योंकि मुझे घर जल्दी आना था।लगभग चार बज चुके थे और मैंने आधा मेला ही घुमा था अभी तक, कुछ पंडालों में तो मैं जा ही नहीं पाया। मुझे लगा कि अगर पूरा मेला घूमना हो तो कम से कम दो दिन लग ही जायेगा मुझे। एक पंडाल में कृषि से सम्बंधित विशेषज्ञ किसी विषय पर चर्चा में तल्लीन थे और एक खाली पंडाल में बहुत से लोग सोये हुए भी थे। शायद वे थके हुए थे और आराम करने के लिए उन्हें इससे अच्छी जगह कहाँ मिलती।
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डेरी की मशीने |
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ट्रेक्टर के साथ फोटो |
( मेरा यह लेख प्रसिद्द ऑनलाइन हिंदी पत्रिका 'रचनाकार' में छपा हैं। लिंक- http://www.rachanakar.org/2018/04/114.html )