भारतीय रेल में यात्रा कर रहा हूं। आनंद विहार से गाड़ी खुली और कानपुर से आगे सरपट दौड़े जा रही है।RAC सीट है और सहयात्री एक बुजुर्ग हैं, आराम से बैठे हैं ध्यानमग्न।मैं कभी मोबाइल फोन देख रहा हूं तो कभी खिड़कियों से बाहर। खिड़कियां हमेशा ही अच्छी होती है और यह तो रेलगाड़ी की खिड़की है।
कुछ तस्वीरें खींच लिया बैठे-बैठे,आखिर फोटोग्राफर बनने का इससे अच्छा अवसर कहाँ मिलेगा मुझे?
कहीं-कहीं नयी पटरियां बिछाई जा रही है, इसलिए बड़ी-बड़ी मशीनें काम पर लगी है जो कि सुंदर दृश्य को खराब कर रही है।
कुछ तस्वीरें खींच लिया बैठे-बैठे,आखिर फोटोग्राफर बनने का इससे अच्छा अवसर कहाँ मिलेगा मुझे?
कहीं-कहीं नयी पटरियां बिछाई जा रही है, इसलिए बड़ी-बड़ी मशीनें काम पर लगी है जो कि सुंदर दृश्य को खराब कर रही है।
प्रकृति ने कितनी सुंदर रचना की है और दुसरी तरफ इंसान है जो सोचता है कि उससे अच्छा कोइ बना ही नहीं सकता। यह भूल जल्द न सुधारा गया तो हम सबकुछ खो बैठेंगे, न खिड़कियों के पास बैठने का दिल करेगा और न तस्वीरें खींचने का।
ट्रेन में तरह तरह के लोग सफर करते हैं पर जो सफर नहीं करते हैं फिर भी ट्रेन में होते हैं, उनका उस स्थिति में होना मुझे किसी और से नहीं तो कम से कम स्वयं से प्रश्न करने के लिए विवश करता है।उत्तर शायद ही कभी मिलता है।
कोई व्यक्ति बोगियों की साफ-सफाई कर जाये और बदले में आपसे 1-2 रु. मांगे, इसपर अलग-अलग राय है पर प्रश्न है। प्रश्न है रोजगार का।
आप इसपर सोच ही रहे होते हैं कि अचानक सामने कोई छोटी सी फुल जैसी बच्ची आपके सामने हाथ आगे कर देती है , तब मैं सिहर उठता हूं। मैं क्या दे सकता हूँ उसे? मैं तो स्वंय भिखारी हूँ, यह विचार कौंध जाता है मन में पर फिर औरो को सिक्के देता देख मैं भी उसके छोटे-छोटे हाथों में सिक्का रख देता हूँ।
पता नहीं कब आख लग गयी थी, अभी पापा का फोन आया तो नींद टुटी।
हमारी ट्रेन इलाहाबाद पहुचने वाली है। सुबेदारगंज का यह छोटा हाॅल्ट मुझे अन्य हाॅल्ट जैसा ही लगा। शांत और साफ। आसमान में उड़ता कौआ मुझे बता गया कि तुम घर पहुंचने ही वाले हो।इलाहाबाद में ट्रेन कुछ मिनट रुकी, कुछ लोग उतर गये क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी मंजिल आ गयी है और कुछ नये चेहरे दिखे। इस बीच ट्रेन खुल गयी।
हमारी ट्रेन इलाहाबाद पहुचने वाली है। सुबेदारगंज का यह छोटा हाॅल्ट मुझे अन्य हाॅल्ट जैसा ही लगा। शांत और साफ। आसमान में उड़ता कौआ मुझे बता गया कि तुम घर पहुंचने ही वाले हो।इलाहाबाद में ट्रेन कुछ मिनट रुकी, कुछ लोग उतर गये क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी मंजिल आ गयी है और कुछ नये चेहरे दिखे। इस बीच ट्रेन खुल गयी।
मैंने अपने थैले में हाथ डाला कुछ खाने की चीज निकालने के लिए जिसे मेरे भाई ने रखा था।
लिखना नहीं चाह रहा हूँ पर ट्रेन यात्रा के दौरान सबसे अधिक बुरा तब लगता है जब आप कुछ खा रहे हों और खिड़की से एक दुर्गंध आपके नथूनों और मुंह में प्रवेश कर जाये। यह दुर्गंध भी खास तरह का होता है और पटरियों के आसपास ही सुंघने को मिलता है या कहें महसूस होता है कि प्रकृति ने साफ हवा न दी होती तो क्या हम जी पाते, क्या हम वो सब कर पाते जो अभी कर रहे हैं।
यह जानते हुए कि जिस ट्रेन पर मैं यात्रा कर रहा हूँ उसकी वजह से न जाने कितने ही मासूम जीवों की हत्या हुई है, मैं कुछ नहीं कर सकता। कुत्ते, बिल्लियां, जंगली पशु कट जाते हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहना तो यह चाहता हूँ कि रेल चलाने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम बेजुबान जीवों को रौंदते हुये आगे बढें परंतु सोचता हूँ मानवों में अब इतनी मानवता भी नहीं कि यह सुनकर आसुं आ जाये। वह धैर्य भी नहीं है और वह करुणा भी जो इस हाड़-मांस के शरीर को मानव बनाता है। वर्ना ऐसा क्यों होता कि हत्या करने के बाद भी ट्रेन रुके नहीं और आगे बढ जाये।
शाम हो चुकी है, रेलगाड़ी भी अब धीरे-धीरे चल रही है और हवा भी मंद बह रही है। खिड़कियों से देख रहा हूँ कि खेतों में सरसों लगे हैं। सुंदर, बहुत सुंदर दृश्य पर मन इतना चंचल है कि यहाँ भी नहीं ठहरना चाहता। सोचता हूँ कि 'भारतमाता ग्रामवासिनी' कविता में जिन खेतों का वर्णन है कहीं ये तो नहीं थे। खैर ट्रेन आगे बढी और मन भी वास्तविक दुनिया से उबकर आभासी दुनिया में आने को मचल उठा। लेखन को विराम देना उचित समझा। गाड़ी कोडरमा सुबह 3 बजे तक पहुचेगी।
(यह अनुभव ट्विटर पर ट्विट के रुप में है जिसे यहां संकलित कर दिया गया, कुछ जोड़-तोड़ के बाद)